Wednesday, September 30, 2009

"पेट अपना कुँआ हो गया"

यह शहर आलिशां हो गया ।
जर्फिदा अब जवां हो गया ।

रिश्ते-रिश्ते पे कीमत की पर्ची,
आदमी बस दुकां हो गया ।

चहचहाते नहीं अब परिन्दे,
यूँ कफस आशियां हो गया ।

ख़ुद परस्ती का अब तो ये आलम,
आदमी बदजुबां हो गया ।

ख़ुद-नुमायी के दौरे चलन में,
आइना बदगुमां हो गया ।

कौन पोंछे गरीबों के आंसू,
पेट अपना कुँआ हो गया ।

बिक रहा अब तो पानी हवा भी,
लो अधतिया फलां हो गया ।

तल्ख़ ज़ज़्बा दफ़न था ज़हन में,
रफ्ता-रफ्ता बयाँ हो गया ।

कल जो 'गुमनाम' लूटा चमन को,
अब वही बागवां हो गया ।

-रघुनाथ प्रसाद



"तुम वफ़ा के नाम पर"

तुम वफ़ा के नाम पर, कोरी कसम खाते रहे ।
हम हकीकत की गली में, ठोकरें पाते रहे ।

बद से बदतर दिन-ब-दिन, होता रहा हाले मरीज़,
आप बस झोला लिए, आते रहे जाते रहे ।

तान सीना कह गए, घर-घर जलाएँगे चराग
और खुद ही रोशनी से, आप घबराते रहे ।

ढल चुकी है रात कलि, छंट रही अब तीरगी,
कुत्ब को तारा सुबह का, आप बतलाते रहे ।

फेंक नीचे हड्डियाँ, खाते रहे शाही कवाब,
लड़ रहे कुत्ते गली के, आप मुस्काते रहे ।

चोट उतनी ही सही, जो काबिले बर्दाश्त हो,
अब नहीं मुमकिन न चीखें, ज़ख्म सहलाते रहे ।

सड़ चुके उस घाव पर, पट्टी चढ़ाना था फिजूल,
नश्तरे जर्राह से 'गुमनाम' कतराते रहे ।

-रघुनाथ प्रसाद

Wednesday, September 16, 2009

संकल्प

बहुत लंबे अंतराल तक सभी सुभेच्छु बंधुओं के साथ जुड़ने से वंचित रहने का कारन अस्वस्थता एवं आलस्य मात्र रहा । आगे जब तक शरीर साथ देगा, आप सभी बंधुओं से जुड़े रहने का प्रयास करता रहूँगा क्योंकि अपना तो संकल्प है.......
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झिलमिलाये दीप, लौ की रोशनी कामने न पाए ।
चल रही है साँस जब तक, साधना थमने न पाए ।

मानता यह कार्य दुष्कर, यातनाओं से भरा है ।
क्रांति पथ का सजग प्रहरी, कंटकों से कब डरा है ?
विष्व में समभाव की परिकल्पना न डगमगाए । चल रही.....

है देख अत्याचार को, मुहँ फेर लेना तो सरल ।
हां, भूल निज अधिकार को, चुपचाप पी ले क्यों गरल ।
लेखनी निष्पक्ष निर्भय, चेतना मरने न पाए । चल रही.....

मेघ से ढक जाये नभ, कड़के हज़ारों बिजलियाँ ।
कठिन झंझावात, मुसलाधार बरसें बदलियाँ ।
हृदय में जो दीप जलता, आस का, बुझने न पाए । चल रही.....

वंचना उपलब्धि की छलती रही, छलती रहेगी ।
सोचना क्यों, स्वार्थ में अन्धी दुनियाँ क्या कहेगी ।
कर्म से बस नेह, फल की कामना छलने न पाए । चल रही.....

कह सकें निर्बन्ध जो, कहती है कानों में हवायें,
या भटकते धुन्ध में, सहमे परिन्दों की सदायें,
धार हो अभिव्यक्ति में, संवेदना कामने न पाए । चल रही.....

-रघुनाथ प्रसाद