Thursday, December 31, 2009

आप आते बेनकाब

इस तरह कोई यकीं ,कैसे करे कहिये जनाब ।
मैं दरे दिल खोल देता ,आप आते बेनकाब ।

जबतलक मतलब रहा ,आते रहे कितने हबीब ,
कौन कब आया गया कब ,कौन रखता ये हिसाब ।

फूल मुरझाया तो भंवरे लग लिए पतली गली ,
फेंक दी जाती सुराही ,ख़त्म होते ही शराब ।

पास ले -दे के बचा अब ,इक अदद कुरता इजार ,
है अगर ख्वाहिश तो मिलिए ,बे तकल्लुफ बे हिजाब ।

रूबरू था आइना अब ,दरमियाँ हस्ती दीवार ,
अब तसब्बुर में नुमाया ,हुस्न अपना माहताब ।

किस तरह मापे कोई अब ,उम्र की गहराइयाँ ,
राजदा हो स्याह जुल्फों का ,अगर नकली खिजाब ।

वक्त ने करवट लिया तो ,बन गया प्यादा वजीर ,
हांकते तांगा गली में ,जिनके परदादा नवाब ।

गर मिले फुर्सत कभी तो ,खोल कर पढ़ लीजिये ,
रख गया 'गुमनाम 'कोई जीस्त की पहली किताब ।

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रघुनाथ प्रसाद

Saturday, December 26, 2009

'ये कैसी मजबूरी '

उठे हाथ कुछ लिखने को क्यों बार -बार थम जाते ?
.धमनी के संचार तंत्र,हर बार सहम क्यों जाते ?

कलम कांपती हत्यारन सी ,कुछ का कुछ लिख जाती ,
उलझे -उलझे शब्द जाल में ,भाव कही खो जाते ।

क्यों मस्तिष्क समझ ना पाए ,अंतर्मन की भाषा ?
आते -आते शब्द कंठ तक ,वहीँ ठहर क्यों जाते ?

कुंठित क्यों विश्वास ,हृदय क्यों हीन भाव से बोझिल ?
सच को सच -सच कह देने से ,इतना क्यों कतराते ?

राह रोकता विचलित करता वाद तंत्र का घेरा ?
या भरमाते दृश्य संस्करण ,पग -पग इन्हें लुभाते ?

या फिर दिशा हीन कर जाते ,दर्प ,ख्याति का लोभ ,
लक्ष्य हीन शर, ब्यर्थ हवा में ,इधर उधर खो जाते ।

या दुर्बल कर देती इनको ,प्रबल पेट की आग ?
गम खाते आंसू पी लेते ,कफ़न ओढ़ सो जाते
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रघुनाथ प्रसाद
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Thursday, December 24, 2009

"कौन थामेगा हाथ उम्र भर के लिए"

कौन थामेगा यहाँ हाथ उम्र भर के लिए ।
लगा सवाल अजूबा सा, इस शहर के लिए ।
लोग कपड़े की तरह, यार बदल लेते हैं,
फिक्र करता है कौन, आज हमसफ़र के लिए ।

अब तो रिश्ते भी बदलने लगे मौसम की तरह,
तलाश लेंगे कहीं और जगह घर के लिए ।

आदमी आदमी कहाँ रहा, मशीन हुआ,
दिलो-जज्बात जरुरी नहीं बशर के लिए ।

आ गया कल अगर तो कल का, कल सोचेंगे,
आज तो सोचने दो, सिर्फ आज भर के लिए ।

वही अल्फाज हैं मानी बदल गए लेकिन,
नए अल्फाज तलाशें, सही खबर के लिए ।

भले हो मिलकियत 'गुमनाम' का हद्दे आलम,
फकत दो गज जमीं है, आखिरी सफ़र के लिए ।

-रघुनाथ प्रसाद

Wednesday, December 9, 2009

गीत

जो हृदय झंकृत न कर दे ,वह भला संगीत क्या है ?
जो न मन को छू सके ,वह काव्य क्या वह गीत क्या है ?

जीत लें ऐश्वर्य वैभव ,आप सारे विश्व का ।
जो न मन को जीत पाये ,तो भला वह जीत क्या है ?

यूँ तो अक्सर ही मिला हैं यारों दो बदन। ,
जो हृदय ना मिल सके ,वह प्रणय क्या वह प्रीत क्या है ?

साथ देने के लिए ,सुख में बहुत आते हैं लोग ।
साथ छोड़ें गर्दिशों में ,दोस्त क्या वह मीत क्या है ?

सत्य जो सुंदर वही है ,शिव वही सास्वत वही ।
इस अनादी अनंत का ,इतिहास और अतीत क्या है ?
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रघुनाथ प्रसाद

Monday, December 7, 2009

दोहे

हाथ जल गए होम में ,परिक्रमा में पांव ।
चीर हरण की होड़ में ,पटवर्धन का गांव ।

आबादी सुरसा हुई ,आमद कृष्ण मयंक ।
शुक्ल पक्ष का चन्द्रमा , महगाई का अंक ।

पंडितजी बतला रहे ,हुए शनिश्चर बाम ।
दान हवन पूजन करें ,तभी बनेगा काम ।

देश प्रेम वाणी बसे ,देशद्रोह हिय बीच ।
ख्याति प्रतिष्ठा पा रहे ,ऐसे ही नर नीच ।

उसने धन -दौलत दिए ,तुमने थोड़ा प्यार ।
धन -दौलत आए गए ,अक्षुण लघु उपहार ।

क्रोध जगावे मुर्खता ,हरे विवेक विचार ।
जीत लिया जो क्रोध को ,कभी न होगी हार ।

हृदय बसा मत्सर वैरी ,छुप -छुप करता वार ।
जला नित्य धीरे -धीरे ,तन -मन करता छार ।
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रघुनाथ प्रसाद .

Friday, December 4, 2009

दरबार की बातें करें

आइये बैठें यहाँ दरबार की बातें करें ।
आँख करलें बंद बस अखबार की बातें करें ।

फूल की माला लिए उनसे गले मिलने चलें,
हाथ में खंज़र लिए जो प्यार की बातें करें ।

मौसमी बरसात में सारी पुताई धुल गई,
फिर वही जर्जर सड़क रफ़्तार की बातें करें ।

वायुमंडल हो प्रदूषित या गगन में छेद हो,
आइये वातानुकूलित कार की बातें करें ।

फ़र्ज़ का एहसास बाँटें मंच से तकरीर में,
आप केवल आप के अधिकार की बातें करें ।

कल किसी के हाथ में परसों किसी के साथ में,
आज किसकी जेब में सरकार की बातें करें ।

अक्ल से औ शक्ल से घुग्घू दिखाई दे भले,
रहनुमा वो आपके सत्कार की बातें करें ।
-रघुनाथ प्रसाद

Wednesday, December 2, 2009

दोहे

बड़ी मछलियाँ लिख रहीं ,छोटी की तकदीर ।
ध्यान लगा तट पर खड़ा ,बगुला आलमगीर ।

अंकुर को सहला रहा ,जड़ बारूदी गंध ।
खिलने से पहले लुटा ,कलिओं का मकरंद ।

लोकलाज शालीनता ,गयीं दूकान समेट।
जितना ऊँचा ओहदा ,उतना लंबा पेट ।

संसद में लगने लगा ,मछली का बाजार ।
हो हल्ला हुडदंग में ,लोकतंत्र लाचार ।

नई सदी ले आ गई ,पश्चिम से पैगाम ।
जितना छोटा आवरण ,उतना ऊँचा दाम ।

कहना था सो कह दिया ,करिए आप विचार ।
पोता कर्ज चुका रहा ,दादा लिए उधार ।

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रघुनाथ प्रसाद

Tuesday, December 1, 2009

एक पल को जिया

एक पल को जिया ,देखिये हौसला ।
बाँध रक्खा हवा ,आब का बुलबुला ।

सौ बरस जी लिए ,कुछ दिए ना लिए ,
आप आए गए कब ,पता ना चला ।

उसने पूछा महज खैरियत प्यार से ,
सरहदें तोड़ दी ,मिट गया फासला ।

बात इतनी सी थी ,कौन औअल खुदा ,
हाय !दैरो हरम ,बन गया कर्बला ।

एक चिंगारी नफरत की अदना सही ,
आज शोला हुई हम जले घर जला ।

अमन 'गुमनाम 'है हाशिये पे खड़ा ,
आप आयें इधर तो ,बने काफिला ।
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रघुनाथ प्रसाद