Tuesday, April 20, 2010

गीत

यूँ तो खाए हुए हैं चोट जमाने भर के.
जिगर को चीर गए तीर हमारे घर के .

जख्म भरता नहीं की एक और जखम नया ,
खैरियत पूछ रहे पीठ पे हमला कर के .

गजब है रस्म यहाँ पंख कतरनेवाले ,
हौसला बाँट रहे आँख में पानी भर के .

मुझे हैरत से देखने का सबब वो जाने ,
मैं तो बस पेश किया जामे वफ़ा डर डर के .

फलक के छोर तलक जाल बिछा है शायद ,
लौट आते यहीं परवाज उड़ाने भर के .

यूँ ही गुजरी है जीस्त और गुजर जायेगी ,
कभी देखा ही नहीं खुद पे भरोसा कर के .

हाय हँसने दिया खुल के खैरख्वाहों ने ,
कभी रोया भी नहीं आजतलक जी भर के .

चलो गुमनाम दयारों में कहीं खो जाएँ ,
सो गए लोग घरौदों में अँधेरा कर के .

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रघुनाथ प्रसाद

Saturday, April 17, 2010

दोहे

दुर्योधन चोरी किये भीष्म हो लिये साथ
दुर्जन के संग होम में ,ब्यर्थ जलाये हाथ


मन क्रोधित तब कंठ से ,मधुर वचन बिलगाय
गरम तवा पर जल पड़े ,बने भाप उड़ जाय


वाणी में वाणी बसे ,जो मन शीतल होय
कमल पात पर डोलता ,बनकर मोती तोय


लाभ दिखे कुछ कथन से ,कहिये तब निज बात
पर्वत पर ना जल थमे ,मेघ झरे दिन रात


चाटुकार सेवक जहाँ ,मूरख के सर ताज
एक भाव बिकते वहां ,खाजा भाजी नाज


कर थामे ममता सुखी ,बालक पा मुंह कौर
देने का सुख और है ,पाने का सुख और


परिभाषित सुख दुःख सदा ,बहुरुपिया पर्याय
सब की अपनी सोच है ,सब की अपनी राय


गोल चाँद रोटी दिखे ,सद्यः करें उपाय
जठर अगन दहके जभी ,दावानल बन जाय


रक्त दान कोई करे ,कोई खून बहाय
कद ऊंचा किसका भला ,कोई तो बतलाय


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रघुनाथ प्रसाद