Saturday, July 24, 2010

मुखौटा

दिखने में होने में अंतर ,कितना होता यह जग जाहिर .
भ्रम तो दुनियां को छलने का ,हम स्वयं आप को छलते हैं .

किस मोह पाश का बंधन यह ,आखिर कैसी यह मज़बूरी ,
चेहरे पर कृत्रिम शान ओढ़ ,अपनो के बीच निकलते हैं .

सारे खिड़की दरवाजों पर ,पहरे का बोझ उठाते फिर ,
हर नजर झांकती सी लगती इतना लोगों से डरते हैं .

जाने क्या सुख सहमी सकुची ,संदिग्ध हवा में जीने का ,
इस घुटन भरी गलियारे में,जीने पर गौरव करते हैं .

साहस का शाल ओढ़ कर भी ,कायरता कहाँ छुपा पाते ,
है यही वजह कि दर्पण के ,सन्मुख जाने से डरते हैं .

उन्मुक्त हवा में जीने का ,अद्भुत आनंद कहाँ पाते ,
मानस में पनपे हीन भाव ,अनुकूल हवा में फलते हैं.

           रघुनाथ प्रसाद

Friday, July 23, 2010

uplabdhiyan :ak prashn

धरती सागर नभमंडल क्या
हम पहुंचे चाँद-सितारों तक
हम छान चुके निर्झर नदियाँ
जंगल हिमशिखर पहाड़ों तक .

अवनी ताल की गहराई से
खनिजों को खोद निकाला है
फिर जाँच-परख ,संशोधित कर
इच्छित सांचों में ढाला है .

सदियों पहले ,सागर तल की
गहराई तक हम झांक चुके
रत्नाकर के तहखाने में
क्या-क्या संचित हम आँक चुके .

क्या जीव-जंतु क्या वनस्पति
संरचना सब की जान गए .
हर तंतु-तंतु की जटिल क्रिया
जांची विधिवत ,पहचान गए .

शीशे की नलिकाओं में हम
मानव का बीज उगा सकते
पौधों की कलम कवन पूछे
हम अपनी कलम उगा सकते .

हम वायु वेग से सफ़र करें
बिजली से बातें करते हैं
पल भर में विश्व मिटाने की
क्षमता का भी दम भरते हैं .

वैचित्र्य प्रकृति का अनावृत
करके देखा परखा जाना
पर हे मानव तूने अब तक
क्या स्वयं स्वयं को पहचाना ?

       रघुनाथ प्रसाद

Thursday, July 22, 2010

gazal

एक ही कश्ती में निकले साथ हम हो के सवार .
मौत मेरी ख़ुदकुशी ,उनका शहीदों में शुमार .

नज्म मेरी थी मुसलसल ,आप ने आवाज दी ,
आप सर आँखों पे बैठे ,शक्ल मेरी नागवार .

रात को भी रात कहिये ,तो उन्हें लगता बुरा ,
कबतलक उजड़े चमन को ,हम कहें बागे बहार .

रात दिन जो एक कर ,गढ़ता इमारत उम्र भर ,
सर पे उसके छत नहीं ,ना पेड़ कोई सायेदार

आदमी हर दौर का तो ,एक सा होगा नहीं ,
काम आएगी नहीं ,हर बार चंगेजी कटार .

पर क़तर परवाज के ,हैं मुतमईन लेकिन जनाब ,
फद्फदाया फिर उड़ा वह ,देखिये आँखे पसार .

पर्वती सैलाब शायद ,रोकना मुमकिन नहीं ,
काम आएँगी नहीं 'गुमनाम'राहें पेंचदार .
           रघुनाथ प्रसाद

Monday, July 5, 2010

वहशी हवा का झोका

वहशी हवा का झोका, पर्दा उठा दिया.
कातिल हसीन चेहरा, उरियां दिखा दिया.

इस ओर भजन कीर्तन, उस ओर से नमाज.
दरम्यान मयकदे का रुतवा बढ़ा दिया.

हर काफिया गजल का दहाड़ने लगा,
साकी ने आज शायद, खालिस पिला दिया.

उड़ते रहे हवा में, देखे हसीन ख्वाब,
टूटा नशा तो सीधे, धरती पे ला दिया.

मनहूसियत रवां थी, होली की शाम को,
दो घूंट मिला ठर्रा, होली मना लिया.

जख्मे जिगर हमारा, भरने लगा शायद,
नश्तर बतौर तोहफा, उसने थमा दिया.

हैवानियत के आगे, खुलती नहीं जुबान,
इंसानियत को किसने, बुजदिल बना दिया.

हर रोज उछलता है 'गुमनाम' ये सवाल.
वाजिब जवाब कोई, अबतक कहाँ दिया.

            -  रघुनाथ प्रसाद