Wednesday, December 15, 2010

अशआर पेशे खिदमत फसले बहार के |
उल्लू तमाम काबिज डाली अनार के |

इस अंजुमन में होना गर आप को शरीक,
तो आइये शर्मोहया गैरत उतार के |

आने लगेगी खुशबू बदबू सनी गली से,
ना हो यकीं तो देखें दो घूंट मार के |

किससे करेंगे बातें होशोहवास की,
बैठे हैं शेख साहब सागर डकार के |

गंजे के हाथ में वो कंघी थमा के बोले,
महफ़िल में आप बैठें जुल्फें संवार के |

दौलत मुकाम शोहरत आयेंगे आप चलके,
पहने इजार कुरता अचकन उतार के |

अब तो खुदा से यारों है इल्तजा हमारी,
दरिया को मय से भर दे,पानी निकारके |

"गुमनाम" है वो शायर जिसने कभी न पी,
चल तालियाँ बटोरें पीकर उधार के |
             -----------------------
             रघुनाथ प्रसाद

Monday, December 13, 2010

जब इच्छाओं का ज्वार थम जाए ,
संवेदनाओं की अनुभूति कम जाए ,
प्रतिकार ,समझौता पर थम जाए ,
उदगार वर्फ सा जम जाए ,
         तो समझ लें ,बुढापा आ गई .

जब आस-पास धुंधलका छाये ,
दूर दृष्टी प्रखर हो जाए ,
सहज हो औरों को समझाना ,
पर खुद को समझा न पायें ,
      तो समझलें,बुढापा आ गई .

जब स्मृति भूत से जुड़ने लगे ,
वर्त्तमान कपूर सा उड़ने लगे,
जो भी प्रश्न करें खुद से,
यक्ष प्रश्न बन बिसूरने लगे,
        तो समझलें बुढापा आ गई .

जब कदम साहस के, डगमगाने लगें,
अभिव्यक्ति के स्वर लडखडाने लगे,
भटकाने लगें चिर परीचित राहें,
तिनके का सहारा लुभाने लगे,
      तो समझलें बुढापा आ गई.

जब अपने ही अंग विद्रोह पर उतरें,
कहिये कुछ, कुछ और  कर गुजरें,
जब गजल ठुमरी,सकुचाने लगे,
मन वीणा निर्गुण सुनाने लगे,
    तो समझलें बुढापा आ गई

               रघुनाथ प्रसाद .