Tuesday, July 21, 2009

पाल ये बदल डालो

कई सुराख़ नज़र आ रहे सफीने में ।
ख्वाब साहिल का मगर पाल रहे सीने में।

तिरी नज़र को यार लग गई नज़र किसकी,
लगी तलाशने दानिस्तगी कमीने में।

चलो उतर के जरा हाथ पाँव तो मारें,
कोई मानी नहीं दहशत की साँस जीने में।

कौन कहता है बेबसी है, बेसहारे हैं,
अभी दमख़म है बहुत खून में, पसीने में।

जरूरी तो नहीं हम भी उसी राह चलें,
बानाएं रास्ता मौजों के तल्ख़ सीने में।

कुतुबनुमा न सही कुत्ब रहनुमा होगा,
जुनूननो जज्बा अगर आदमी के सीने में।

हो गए तार तार पाल ये बदल डालो,
वक्त जाया न करो, बार बार सीने में।

चलो माना की यूँ 'गुमनाम' हीं फना होंगे,
नहीं पैमाना गिनो यार कभी पीने में।

- रघुनाथ प्रसाद

Saturday, July 4, 2009

कलयुग


हे मुरलीधर, मोर मुकुटधर,
गोवर्धन, गिरिधारी ।
केशव, माधव, पार्थसार्थी,
नटवर, कुंज बिहारी ।

कुटिल कंस, शकुनी, दुःशासन,
नगर-नगर पर हावी ।
अंधे राजा के हाथों में,
पड़ी कोष की चाबी ।

धर्मराज तरसे रोटी को,
भीम करें दरवानी ।
स्वस्ति गान सहदेव कर रहें,
नकुल परोसें पानी ।

बृहन्नला बन अर्जुन नाचें,
बजा-बजा कर ताली ।
चीर हरण का दंश झेलतीं,
गली-गली पांचाली ।

माखन चोर बता दो इतना,
क्या पाया उत्कोच ।
आँखें बन्द सुदर्शन कुंठित,
बदल गई है सोच ।

- रघुनाथ प्रसाद

अंधेरा क्यों?

दरवाजे पर धूप खड़ी, अंदर घनघोर अंधेरा क्यों?
चौकठ पर बर्छी भाला ले पहरेदार लुटेरा क्यों?

कंधे बैठा बाज व्याध के पिंजरा कम्पा हाथ लिए,
तनी गुलेल पेड़ की टहनी चक्रव्यूह का घेरा क्यों?

घने धुन्ध में ढ़ूँढ़ रहीं हैं डैना ताने ललमुनियाँ।
कहाँ हमारा रैन बसेरा, उत्तर ने मुँह फेरा क्यों?

मेघ भटकते दिशाहीन, धरती प्यासी, अंकुर सूखें।
झंझावात तड़ित डाले, पर्वत के ऊपर डेरा क्यों?

यक्ष प्रश्न बन खड़ा, सही उत्तर कोई दे पाएगा?
पोषण का प्रहरी बन जाता, शोषक का मौसेरा क्यों?