Sunday, September 26, 2010

अनोखा तर्क

छोटा था बुधिया जब मेरे घर आती थी
शौचालय धोती थी, मैला उठाती थी
बदले में अन्न और बचा-खुचा भोजन कुछ,
दो रुपये मासिक तनख्वाह मात्र पाती थी
बबुआजी कहती वह, स्नेहसिक्त नज़रों से,
दूर से निहार, बड़े प्यार से बुलाती थी
जिज्ञासु बालक मन, प्रश्न किया मैया से,
बुधिया क्या कुतिया है इतना भय खाती हो
दूर रखवाती क्यों उसका कटोरा तुम ?
दूर से ही ऊपर से रोटी गिराती हो
मैया निरुत्तर थी, भृकुटी कमान हुई
बिलख पड़ा, दादी तब गोद में उठाई थी
बालक भगवान रूप, समझे क्या छूत-छात,
बड़ा होगा समझेगा, दादी समझाई थी
याद मुझे शाम एक, माघ का महिना था
बुधिया के बर्तन को हाथ मैं लगाया
दादा का रौद्र रूप, घर में कोहराम मचा,
मुझसे क्या भूल हुई, समझ नहीं पाया था
देह लेप गोबर से, बहार के कूएँ पर,
बजते थे दांत, तीन बार मैं नहाया था
गंगाजल, तुलसीदल लेने के बद कहीं,
देह ढाँप कपडे से, आँगन में आया था
सात साल बाद एक और शाम यादगार ,
पढ़कर विद्यालय,जब मैं घर आया था
देखा दरवाजे पर,बुधिया के बेटे को,
साथ-साथ दादा के,आसन जमाया था
तैर गए प्रश्न कई,एक साथ आँखों में,
सात साल पहले का दृश्य याद आया था
अनुभवी आँखों ने,भाव पढ़े आँखों के ,
दादा ने पास बड़े प्यार से बुलाया था
बुधिया का बेटा यह,साहब का चपरासी,
दादा ने नन्हकू से परिचय करवाया था
रहा नहीं मेहतर अब,धर्म से इसाई है,
दादा का तर्क पुन:समझ नहीं पाया था
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रघुनाथ प्रसाद

गीत

जिस दिन से हो गई परायी, रिश्तों की पहिचान |
रोते-रोते विदा हो गई, होठों से मुस्कान |

चलते-फिरते लोग लगें ज्यों, हिलती-डुलती छाया |
औपचारिक संवाद रसीले, हृदय हीन है काया |
माया की ऊंगली में डोरी, कठपुतली इंसान -
रोते-रोते विदा हो गई, होठों से मुस्कान |

जितना जोड़े सुख के साधन, सुख से उतनी दूरी |
चप्पन भोग सजी थाली, पर ललचाती मजबूरी |
क्षणिक स्वांस के अंकगणित में, उलझा मन नादान -
रोते-रोते विदा हो गई, होठों से मुस्कान |

तोषक तकिया, पलंग मसहरी, नींद कहाँ से लाये |
चिंता की गठरी लादे मन, भटके राह न पाये |
बंद सभी खिड़की दरवाज़े, शंकित सहमा प्राण -
रोते-रोते विदा हो गई, होठों से मुस्कान |

जिस परिकल्पित सुख के पीछे, निशदिन दौड़े भागे |
पास पहुँच कर पाता उसको, दूर खड़ा वह आगे |
कस्तूरी मृग सा चंचल मन, खुद से ही अनजान -
रोते-रोते विदा हो गई, होठों से मुस्कान |

- रघुनाथ प्रसाद 

उषा दर्शन

सिसकती धरा, अश्रु आँचल भिंगोते |
विदा हो रही यामिनी रोते-रोते |

खिसकने लगे मुहँ छिपाते सितारे |
हुआ चाँद धूसर, शितिज को निहारे |
परिंदे चहकने लगे, छोड़ खोंते |
विदा हो रही यामिनी रोते-रोते |

अकेला गगन में खड़ा शुक्र तारा |
मुखर हो चला है जलाशय किनारा |
छलकते घड़े अंग चूनर भिंगोते |
विदा हो रही यामिनी रोते-रोते |

दिये बुझ गए अंततः झिलमिला के |
सँजोया तरल स्नेह सारा लुटा के |
लगी भागने जिंदगी भोर होते |
विदा हो रही यामिनी रोते-रोते |

दमकने लगा हिम शिखर का कँगूरा |
बिछा स्वर्ण चादर, छुपा रंग भूरा |
उड़ा हंस लहरों पे मोती पिरोते | 
विदा हो रही यामिनी रोते-रोते |          

"अभी दूर है गाँव"

थकने लगे अभी से  क्योंकर, चंचल आतुर पाँव ?
अभी तुमे कोसों जाना हैं, अभी दूर है गाँव |
.......... मुसाफिर अभी दूर है गाँव |

कब निकला सूरज का गोला, कब मस्तक पर आया |
चलता रहा पथिक तू धुन में, कहाँ ध्यान दे पाया |
सुरसा सी बढती परछाई, अरु तरुओं की  छाँव |
.......... मुसाफिर अभी दूर है गाँव |

दम उखड़ा पग पनही टूटी, दुखती रही बिवाई |
जोड़-जोड़ में दर्द पिरोती, सिहर-सिहर पुरवाई |
रैन बसेरा उन्मुख पंछी, गूंजे कलरव  काँव |
.......... मुसाफिर अभी दूर है गाँव |

देख पथिक उस नाविक को, जो नाव लिये मझधार |
धैर्य डोर से पाल संभाले, साहस से पतवार |
गाता गीत सुरीले स्वर में, खेता जाता नाव |
.......... मुसाफिर अभी दूर है गाँव |

दीपक का है मोल तभी तक, जब तक जलती बाती |
ठहर गयी जिस ठौर नदी, वह नदी नहीं रह जाती |
चलना ही जीवन कहलाये, मौत जहाँ ठहराव |
.......... मुसाफिर अभी दूर है गाँव |

-रघुनाथ प्रसाद       

Saturday, September 25, 2010

"कैसा तेरा गाँव ?"

कैसा तेरा गाँव साथिया,कैसा तेरा गाँव?
कहीं फसल सूखे मुर्झाए,कहीं बहाए बाढ़.
कहीं जलातीं लू की लपटें,कहीं ठंढ की मार.
कहीं काँपती थर-थर गुरवत,जलता कहीं अलाव .
साथिया ..........
नदियाँ स्वयं नीर पी जाएँ,तरुवर फल खा जाएँ .
भूखे प्यासे पशु परिंदे,नाहक आस लगाए .
बूढ़ा बरगद ओढ़े बैठा,अपनी शीतल छाँव .
साथिया ..........
यमन,विलावल,अहिर भैरवी,ध्रुपद,राग दरबारी .
कजरी,आल्हा,बिरहा,ठुमरी,तोड़ी,राग पहाड़ी .
होड़ लगी है ताल ठोककर,सरगम में टकराव .
साथिया ..........
देती क्या सन्देश अराजक भेद-भाव की भाषा .
ध्वज,परचम,डंडे पर चढ़कर,बन्दर करें तमाशा.
गली-गली विस्फोट धमाका,चौराहे पथराव .
साथिया ..........
धरती खोदे महल उठाये,ये कैसी चतुराई ?
जितना ऊँचा उठा मुडेरा,उतनी गहरी खाई .
देखो कहीं कहर ना ढाए,मौसम का बदलाव .
साथिया ..........
रघुनाथ प्रसाद

Friday, September 24, 2010

सरिता

शैशव सी निर्मल निश्छल ,चंचल कल-कल जल धारा. 
किलक-किलक गिरती उठती,मुखरित पर्वत गलियारा .
रवि की प्रथम किरण चुपके,आती छू-छू कर जाती .
सतरंगी परिधान पहन तब,इत-उत दौड़ लगाती .
खेल-खेल में हुई किशोरी,उच्छ्रिन्खल इतराती.
कभी दौड़ टीले पर चढ़ती,कभी कहीं छुप जाती .
पता कहाँ उस पगली को,किस पथ है उसको जाना .
उसे सुहाता उछल-कूद,बस आगे कदम बढ़ाना .
प्रकृति गोद में पली- बढ़ी,यौवन ने रूप निखारा .
निर्झरणी उद्दाम हुई,दुबली-पतली जल धारा .
राह बनी जिस ओर गई वह,लहराती बल खाती .
तोड़-फोड़ जंगल पर्वत,यौवन मद में इठलाती .
पर्वत से उतरी जैसे,समतल धरती पर आई .
लगी नवेली दुलहन हो ज्यों,शर्मीली सकुचाई .
तट की सीमा में सिमटी,घूँघट तरुओं का डाल .
डोली में दुल्हन जाए,जैसे अपने ससुराल .
मंथर गति कल-कल करती वह, आगे बढ़ती जाए.
नई वधु आँगन में रुन-झुन,पायल ज्यों खनकाए .
डगर-डगर अमृत बाँटे,फसलों में प्राण जगाए .
आह्लादित ममता मानो,शिशु को पयपान कराये .
नारी-रूपा,सुधा-तरंगिनी,जन-जीवन आधार .
तटिनी,निर्झरणी शैवालिनी,तुम्हें नमन शत बार .

वसंत

प्रातः की गुन-गुनी धूप में सिहरन का एहसास .
ले संदेसा पछेया आई ,आ पहुंचा मधुमास
पादप के पीले पत्ते अब ,गीत फागुनी गाते.
डाल छोड़ कर नाच हवा में ,धरती पर सो जाते .
टेंसू का गदराया यौवन ,गाल हो गए लाल ,
अमराई में बौर लदगए ,झुकी आम की डाल .
सरसों में दाने भर आये ,फुनगी पर कुछ फूल .
अलसी सर पर कलसी थामे ,राह गई ज्यों भूल .
खड़ा मेंड़ पर लिये लकुटिया ,कृषक हाथ कटी थाम .
झूम-झूम गेहूं की बाली ,झुक-झुक करे सलाम .
पछेया तो हो गई बावरी ,करने लगी ठिठोली .
धरती पर से धूल उठाकर ,लगी खेलने होली .
दंभ ,द्वेष ,मनमैल,भेद ,जलगए होलिका संग ,
गले मिले पुलकित आह्लादित ,भाँति-भाँति के रंग
मिटा गया आयु की सीमा ,कैसा यह ऋतुराज .
होली के मदमस्त ताल पर ,झूम रहे सब आज .
दंतहीन पिचके गालों पर पसरा रंग गुलाबी ,
जाने क्या सन्देश दे गया ,यह मधुमास शराबी .

              रघुनाथ प्रसाद

Thursday, September 23, 2010

आखिरी पडाव का सफ़र

आखिरी पडाव का सफ़र, माथे पर झुरमुठ की छावं |
सहलाते बैठकर यहाँ, थके हुए पीठ और पाँव |
मिलते ही मीत हो गए,  अनजाने हमउम्र लोग,
अद्भुत अपनापन का भाव, साले मन किंचित वियोग |
अपने मेहमान बन गए, औपचारिक सेवा सद्भाव |

विरल श्वेत बादलो के बीच, झाँक रहा धूसर मयंक |
पंछी सब एक डाल के, ना कोई राजा ना रंक |
कलरव में निर्गुण की धुन, सरगम में कम्पन ठहराव |

चिबुक संग नासिका मिली, दसन गए खुला छोड़ द्वार |
जिह्वा निर्बाध दौड़ती, चौकठ ना कोई दीवार |
शब्द उलझ कंठ में फंसे, मन में कुछ कहने की चाव |

बचपन की यादों के पल, जोड़ते हैं बात की कड़ी |
हंस लेते बैठ कर यहाँ, हृदय खोल रोज दो घडी |
बतरस के भिन्न भिन्न रंग, अनुभव में किंचित टकराव |

जटिल कई प्रशन अनछुए ,सहज लगे बाँट परस्पर |
चेहरे की गहरी शिकन, पल भर को जाती पसर |
चलते ही साथ हो लिए, चिंता तनहाई तनाव |

यन्त्रवत प्रचंड वेग से सडकों पर भागती सी भीड़ |
दाने तलाशने उड़े विहग बृंद छोड़-छोड़ नीड़ |
अपने दिन याद आ रहे, आया अब कितना बदलाव |
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                     -रघुनाथ प्रसाद