Monday, November 30, 2009

त्रिवेणी दर्शन

उद्विग्न हृदय विस्मित आनन् ,कुछ भूल चुका कुछ भूल रहा ।
कितने ज्ञानी ध्यानी देखे ,इठलाते सैलानी देखे ।
कुछ दरश परस मज्जन करते ,कुछ ले जाते पानी देखे ।
जो आए आकर चले गए पदचिन्ह आंकता धुल रहा ।
उद्विग्न हृदय ...........

नावें कितनी कितने नाविक ,स्मरण कहाँ मुझको इतना ।
स्मरण मात्र छिना झपटी ,धक्का -मुक्की लड़ना भिड़ना ।
इतना झकझोर दिया मन को ,अबतक दोलक सा झूल रहा ।
उद्विग्न हृदय ..............

धर्म कहीं ना कर्म सही, सब ओर मचा था लूट -पाट।
घटवारों की दादागिरी जिनके ठीके में रहा घाट ।
मल्लाह खड़ा था बांस लिए ,मेरे हाथों में फूल रहा ।
उद्विग्न हृदय .............

थे बाज दिखाई देते वो ,कहते थे लोग जिन्हें पंडा ।
भय शाम दाम अरु दंड भेद ,अनुरूप भक्त के हथकंडा ।
श्रधा शरमाई सिमट गई , ब्यापारी मोल वसूल रहा ।
उद्विगन हृदय -------

पंडा बोला नीली यमुना ,पीली दिखती गंगा माई ।
माँ सरस्वती अन्तः सलिला , वो पड़ती नहीं है दिखलाई ।
शायद उनका अब मोल नहीं , यह तर्क बड़ा अनुकूल रहा ।
उद्विग्न हृदय ...........
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Sunday, November 29, 2009

दास्ताने चमन

खुशबु न फूल में रही न खार में चुभन ।
अब यार दरअसल न रहा ये चमन चमन ।

वो गुलमुहर गुलाब सुर्ख ,ज़र्द हो गए ,
कोयल के कंठ में भी तल्खी छिछोरपन।
कलियाँ बिछीं जमीं पे डाली से टूट -टूट ,
कब तक संभाल पातीं बारूद की घुटन ।
हर शाख इक कफस है ,टहनी तनी गुलेल ,
खोलें न पंख दुबके ,परवाज आदतन ।

वो सरफरोश माली ,तारीख बन चुके ,
जिनको अजीज जान से हरदम रहा चमन ।

परवरदिगार मालिक ,इस बदनसीब का ,
ख़ुद बागवा लुटेरा ,फ़िर क्या करे चमन

'गुमनाम 'पैराहन रफू किए तमाम उम्र ,
तुर्बत पे किस लिए भला ये रेशमी कफ़न ।

Thursday, November 26, 2009

कल क्या होगा ?

जब तक गंगा की लहरों में गूंजेगा स्वर कल-कल का ।
तब तक ही जीवित जन गन का सपना कल के जीवन का ।

कल के लिए कभी तो सोचें क्या होगा इस दुनिया का ।
हिम के बिना हिमालय अपना नंगा अगर खड़ा होगा ।

आनेवाली पीढ़ी अपनी बूंद-बूंद को तरसेगी ।
दूषित वायुमंडल का प्रतिफल इतना तगड़ा होगा ।

हमने ही खोदी यह खाई हम को ही भरना होगा ।
समय आ गया सब को मिलकर समुचित कदम उठाने का ।

-रघुनाथ प्रसाद

Sunday, November 22, 2009

'हम और मैं '

नील गगन में पंख पसारे, उड़ता हुआ पखेरू मन था ।
खुली हवा सांसो में खुशबु, अथक पंख स्वर में गुंजन था ।

कानों में सरिता का कल-कल, आँखों में गुलजार चमन था ।
रोम -रोम पुलकित आह्लादित, बालसुलभ निर्मल चिंतन था ।

सब अपने थे, नहीं पराये घर अपना, अपना आँगन था ।
सारा विश्व समाहित जिसमें, केवल हम थे नहीं अहम् था ।

लगता जैसे सपना था वह, आँख खुली तो टूट गया ।
सहसा कोई क्रूर लुटेरा, हम से हम को लूट गया ।

'हम' खो गया हमारा क्या फिर, जो है मैं हूँ मेरा है ।
अपने हाथ पराये लगते, इतना घोर अँधेरा है ।

सरिता में बहता है शोणित, कल-कल में क्रंदन चीत्कार ।
रोम-रोम संत्रास समाया, आँखों में लिप्सा व्यापार ।

-रघुनाथ प्रसाद

Wednesday, November 18, 2009

"लोग उकताने लगे"

देख कर बदल, चमन के फूल घबराने लगे ।
क्या करें जब अब्रे सावन, आग बरसाने लगे ।

कुछ कहें इसके कबल, अपना गिरेवां झांकिए,
छोडिये कोरी नसीहत, लोग उकताने लगे ।

कर गए तकरीर वाईज, जाम पीना है गुनाह,
बैठकर खुद मयकदे में जाम छलकाने लगे ।

उम्र सारी कट गई, पहुंचे नहीं हैं गाँव तक,
चाँद तारों के सफ़र का ख्वाब दिखलाने लगे ।

कह रहे मुट्ठी में अपने है चरागे आलादीन,
बात रोटी की चली तो, दांत दिखलाने लगे ।

मुतमयन हैं आप, भारी भीड़ पीछे आ रही,
लोग हैं कि आप के साये से कतराने लगे ।

वास्ता दैरोहरम का, हो गया अब बेअसर,
कल तलक 'गुमनाम' थे, अवतार कहलाने लगे ।

- रघुनाथ प्रसाद

Monday, November 16, 2009

मुकम्मल बयान

अशआर नहीं दोस्त, मुकम्मल बयान है ।
तस्वीर आज की यह, उसकी जुबान है ।

अब काफ़िले दलों के, गश्ती में चल पड़े,
दल दल में जिस्म अटका, आफत में जान है ।

वह बोलने लगा तो, बोले चला गया,
शायद नहीं, वो सच-मुच ही बेजुबान है ।

उस सिरफिरे को शायद, इतनी खबर नहीं,
हर शक्स जाहिरा न सही, सावधान है ।

काटने लगा है ताल, हुए साज़ बेसुरे,
मुखड़े में, अन्तरे में लगा खींचतान है ।

श्रोता खड़े-खड़े ही, अब ऊँघने लगे,
कबसे न जाने अटकी, उनकी जुबान है ।

पटरी नहीं सड़क पर, दौड़ें हमारी रेल,
करिए यकीन, अपना यह संविधान है ।

-रघुनाथ प्रसाद

दहकता चमन

हरी भरी वादी फूलों की, जन्नत जिस फुलवारी में ।
बारूदों के टोंटे उगते, उसकी केसर क्यारी में ।

चुभते हैं अब शेर ग़ज़ल के, गजरा से आए बदबू,
लगता ताज़ा लहू भरा हो चांदी की पिचकारी में ।

ख़ुद ही घर में डाका डाले, और बने ख़ुद फरियादी,
जिस में छककर खाना खाते, छेद करे उस थारी में ।

प्यार वफ़ा का नाज़ुक रिश्ता तोल रहे हो सिक्कों से,
फर्क कहाँ बोलो जानेमन, आशिक औ व्यापारी में ।

दुश्मन भी इतना कर पते, शायद यह नामुम्किन था ।
जितना गहरा घाव दे गए, यार हमारे यारी में ।

दरक गया शीशे सा सीना घर आँगन है लहू लुहान,
कोने कोने आग सुलगती, घर के मारामारी में ।

-रघुनाथ प्रसाद

Saturday, November 14, 2009

"हौले से मुस्कुरा देना"

जो रात बीत गई है उसे भुला देना ।
नई सुबह को नए रंग से सजा देना ।
गुज़र गया जो वक़्त लौट के नहीं आता,
दिल-ए-नादाँ को क्यों बेवजह सज़ा देना ।

बुरा सा ख्वाब था वो, आँख खुली टूट गया,
उसी की याद लिए कल नहीं गँवा देना ।

फूल पत्थर पे खिलाएंगे, ज़िद हमारी थी,
किस लिए मौसम-ए हालत का सिला देना ।

ख़ाक हो जायेंगे जल जल के जलने वाले,
शरारा थामना हौले से मुस्कुरा देना ।

लगेगी आग तो लपटें यहाँ भी आएँगी,
सुलगती आग को वाजिब नहीं हवा देना ।

शाख़-शाख़ खिलें फूल, बुलबुलें चहकें,
वही कलम तलाशना, यहाँ लगा देना ।
-रघुनाथ प्रसाद

Friday, November 13, 2009

हमने क्या देखा

पूछो न इस शहर में हमने क्या देखा ।
कभी भुला न सकूँगा जो माजरा देखा ।

जुबान बंद बुलबुलों की शोर कौओं का,
शाख-शाख लगा बाज का पहरा देखा ।

वीरान क्यारियां थीं गुलमुहर थे अफसुर्दा,
करील नागफनी को हरा भरा देखा ।

अश्क लबरेज चश्म होठ पे हँसी लेकिन,
हाय मासूमियत को इस कदर डरा देखा ।

रोशनी बांटता जो राह दिखाने के लिए,
उसी चिराग तले स्याह अँधेरा देखा ।

नायाब खेल दिखा चोर सिपाही वाला,
सिपाही भाग रहे चोर को खड़ा देखा ।
-रघुनाथ प्रसाद

ब्यंग्य दोहे

दीन हीन असहाय को, ब्यर्थ न्याय की आस ।
जो समर्थ दोषी नही, कह गए तुलसी दास ।

अंधों की इस दौड़ में, औरों की मत सोच ।
जो भी आए सामने, लंगी मार दबोच ।

सीमा अब धरती नही, लक्ष गगन के पार ।
पंख खुले तो उड़ चलो, तजि कुल घर परिवार ।
कुंद हुई संवेदना, कुंठित रूग्ण विचार ।
निकट पड़ोसी कब मरा, ख़बर दिया अखबार ।

दे केवल उपदेश जो, ऐसे गुरु अनेक ।
कथनी करनी एक हो, ऐसा मिले न एक ।

रंगदारी, अपहरण ही, अब उत्तम व्यवसाय ।
हींग लगे ना फिटकरी, माया दौड़ी आय ।

शिथिल संकुचित पेशियाँ, लम्बी बड़ी जुबान ।
क्रिया हीनता ही सही, कर्मठ की पहचान ।

पढ़े लिखे अफसर बने, बुधुआ धरे नकेल ।
सनद प्रतिष्ठा बांटता, जो अनपढ़ बकलेल ।
-रघुनाथ प्रसाद

पहिचान

कसाई ने बकरे से पूछा -
"क्या है तेरी जातिगत पहचान?"
बकरे ने कहा -
"झटके से काटो तो हिंदू,
जिबह करो तो मुस्लमान"

Saturday, November 7, 2009

"यादों के झरोखें से"

सूनी शाम सुराही खाली, भूली बिसरी यादें, हम ।
कागज़ शेष सियाही सूखी, चलते-चलते थकी कलम ।
फिसलन भरी अँधेरी राहें, गलियारों में खोई सी,
लंबा सफर दूर है मंजिल, औ सांसो की गिनती कम ।
देख रहा अंदाज़ नया अब, भौवरों के मंडराने का ।
कागज़ के फूलों पर ज्यादा, बागों की कलिओं पर कम ।
चकाचौंध में खोते देखा, नित गुमराह जवानी को,
आँख मूँद कर दौड़ लगाते, कल क्या होगा किसको गम ।
कंक्रीट के जंगल उगते, मूक जीव बेघर बदहाल,
मानवता को रफ्ता-रफ्ता, निगल रहा नित स्वार्थ अहम् ।
पीर पिरो कुछ गीत बुने, 'गुमनाम' कभी चलते चलते,
किसे पड़ी जो सुनकर करता, नाहक अपनी आँखें नम ।
-रघुनाथ प्रसाद ।