Thursday, December 31, 2009

आप आते बेनकाब

इस तरह कोई यकीं ,कैसे करे कहिये जनाब ।
मैं दरे दिल खोल देता ,आप आते बेनकाब ।

जबतलक मतलब रहा ,आते रहे कितने हबीब ,
कौन कब आया गया कब ,कौन रखता ये हिसाब ।

फूल मुरझाया तो भंवरे लग लिए पतली गली ,
फेंक दी जाती सुराही ,ख़त्म होते ही शराब ।

पास ले -दे के बचा अब ,इक अदद कुरता इजार ,
है अगर ख्वाहिश तो मिलिए ,बे तकल्लुफ बे हिजाब ।

रूबरू था आइना अब ,दरमियाँ हस्ती दीवार ,
अब तसब्बुर में नुमाया ,हुस्न अपना माहताब ।

किस तरह मापे कोई अब ,उम्र की गहराइयाँ ,
राजदा हो स्याह जुल्फों का ,अगर नकली खिजाब ।

वक्त ने करवट लिया तो ,बन गया प्यादा वजीर ,
हांकते तांगा गली में ,जिनके परदादा नवाब ।

गर मिले फुर्सत कभी तो ,खोल कर पढ़ लीजिये ,
रख गया 'गुमनाम 'कोई जीस्त की पहली किताब ।

-०-
रघुनाथ प्रसाद

Saturday, December 26, 2009

'ये कैसी मजबूरी '

उठे हाथ कुछ लिखने को क्यों बार -बार थम जाते ?
.धमनी के संचार तंत्र,हर बार सहम क्यों जाते ?

कलम कांपती हत्यारन सी ,कुछ का कुछ लिख जाती ,
उलझे -उलझे शब्द जाल में ,भाव कही खो जाते ।

क्यों मस्तिष्क समझ ना पाए ,अंतर्मन की भाषा ?
आते -आते शब्द कंठ तक ,वहीँ ठहर क्यों जाते ?

कुंठित क्यों विश्वास ,हृदय क्यों हीन भाव से बोझिल ?
सच को सच -सच कह देने से ,इतना क्यों कतराते ?

राह रोकता विचलित करता वाद तंत्र का घेरा ?
या भरमाते दृश्य संस्करण ,पग -पग इन्हें लुभाते ?

या फिर दिशा हीन कर जाते ,दर्प ,ख्याति का लोभ ,
लक्ष्य हीन शर, ब्यर्थ हवा में ,इधर उधर खो जाते ।

या दुर्बल कर देती इनको ,प्रबल पेट की आग ?
गम खाते आंसू पी लेते ,कफ़न ओढ़ सो जाते
_______
रघुनाथ प्रसाद
_______

Thursday, December 24, 2009

"कौन थामेगा हाथ उम्र भर के लिए"

कौन थामेगा यहाँ हाथ उम्र भर के लिए ।
लगा सवाल अजूबा सा, इस शहर के लिए ।
लोग कपड़े की तरह, यार बदल लेते हैं,
फिक्र करता है कौन, आज हमसफ़र के लिए ।

अब तो रिश्ते भी बदलने लगे मौसम की तरह,
तलाश लेंगे कहीं और जगह घर के लिए ।

आदमी आदमी कहाँ रहा, मशीन हुआ,
दिलो-जज्बात जरुरी नहीं बशर के लिए ।

आ गया कल अगर तो कल का, कल सोचेंगे,
आज तो सोचने दो, सिर्फ आज भर के लिए ।

वही अल्फाज हैं मानी बदल गए लेकिन,
नए अल्फाज तलाशें, सही खबर के लिए ।

भले हो मिलकियत 'गुमनाम' का हद्दे आलम,
फकत दो गज जमीं है, आखिरी सफ़र के लिए ।

-रघुनाथ प्रसाद

Wednesday, December 9, 2009

गीत

जो हृदय झंकृत न कर दे ,वह भला संगीत क्या है ?
जो न मन को छू सके ,वह काव्य क्या वह गीत क्या है ?

जीत लें ऐश्वर्य वैभव ,आप सारे विश्व का ।
जो न मन को जीत पाये ,तो भला वह जीत क्या है ?

यूँ तो अक्सर ही मिला हैं यारों दो बदन। ,
जो हृदय ना मिल सके ,वह प्रणय क्या वह प्रीत क्या है ?

साथ देने के लिए ,सुख में बहुत आते हैं लोग ।
साथ छोड़ें गर्दिशों में ,दोस्त क्या वह मीत क्या है ?

सत्य जो सुंदर वही है ,शिव वही सास्वत वही ।
इस अनादी अनंत का ,इतिहास और अतीत क्या है ?
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रघुनाथ प्रसाद

Monday, December 7, 2009

दोहे

हाथ जल गए होम में ,परिक्रमा में पांव ।
चीर हरण की होड़ में ,पटवर्धन का गांव ।

आबादी सुरसा हुई ,आमद कृष्ण मयंक ।
शुक्ल पक्ष का चन्द्रमा , महगाई का अंक ।

पंडितजी बतला रहे ,हुए शनिश्चर बाम ।
दान हवन पूजन करें ,तभी बनेगा काम ।

देश प्रेम वाणी बसे ,देशद्रोह हिय बीच ।
ख्याति प्रतिष्ठा पा रहे ,ऐसे ही नर नीच ।

उसने धन -दौलत दिए ,तुमने थोड़ा प्यार ।
धन -दौलत आए गए ,अक्षुण लघु उपहार ।

क्रोध जगावे मुर्खता ,हरे विवेक विचार ।
जीत लिया जो क्रोध को ,कभी न होगी हार ।

हृदय बसा मत्सर वैरी ,छुप -छुप करता वार ।
जला नित्य धीरे -धीरे ,तन -मन करता छार ।
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रघुनाथ प्रसाद .

Friday, December 4, 2009

दरबार की बातें करें

आइये बैठें यहाँ दरबार की बातें करें ।
आँख करलें बंद बस अखबार की बातें करें ।

फूल की माला लिए उनसे गले मिलने चलें,
हाथ में खंज़र लिए जो प्यार की बातें करें ।

मौसमी बरसात में सारी पुताई धुल गई,
फिर वही जर्जर सड़क रफ़्तार की बातें करें ।

वायुमंडल हो प्रदूषित या गगन में छेद हो,
आइये वातानुकूलित कार की बातें करें ।

फ़र्ज़ का एहसास बाँटें मंच से तकरीर में,
आप केवल आप के अधिकार की बातें करें ।

कल किसी के हाथ में परसों किसी के साथ में,
आज किसकी जेब में सरकार की बातें करें ।

अक्ल से औ शक्ल से घुग्घू दिखाई दे भले,
रहनुमा वो आपके सत्कार की बातें करें ।
-रघुनाथ प्रसाद

Wednesday, December 2, 2009

दोहे

बड़ी मछलियाँ लिख रहीं ,छोटी की तकदीर ।
ध्यान लगा तट पर खड़ा ,बगुला आलमगीर ।

अंकुर को सहला रहा ,जड़ बारूदी गंध ।
खिलने से पहले लुटा ,कलिओं का मकरंद ।

लोकलाज शालीनता ,गयीं दूकान समेट।
जितना ऊँचा ओहदा ,उतना लंबा पेट ।

संसद में लगने लगा ,मछली का बाजार ।
हो हल्ला हुडदंग में ,लोकतंत्र लाचार ।

नई सदी ले आ गई ,पश्चिम से पैगाम ।
जितना छोटा आवरण ,उतना ऊँचा दाम ।

कहना था सो कह दिया ,करिए आप विचार ।
पोता कर्ज चुका रहा ,दादा लिए उधार ।

...........................
रघुनाथ प्रसाद

Tuesday, December 1, 2009

एक पल को जिया

एक पल को जिया ,देखिये हौसला ।
बाँध रक्खा हवा ,आब का बुलबुला ।

सौ बरस जी लिए ,कुछ दिए ना लिए ,
आप आए गए कब ,पता ना चला ।

उसने पूछा महज खैरियत प्यार से ,
सरहदें तोड़ दी ,मिट गया फासला ।

बात इतनी सी थी ,कौन औअल खुदा ,
हाय !दैरो हरम ,बन गया कर्बला ।

एक चिंगारी नफरत की अदना सही ,
आज शोला हुई हम जले घर जला ।

अमन 'गुमनाम 'है हाशिये पे खड़ा ,
आप आयें इधर तो ,बने काफिला ।
...........................

रघुनाथ प्रसाद

Monday, November 30, 2009

त्रिवेणी दर्शन

उद्विग्न हृदय विस्मित आनन् ,कुछ भूल चुका कुछ भूल रहा ।
कितने ज्ञानी ध्यानी देखे ,इठलाते सैलानी देखे ।
कुछ दरश परस मज्जन करते ,कुछ ले जाते पानी देखे ।
जो आए आकर चले गए पदचिन्ह आंकता धुल रहा ।
उद्विग्न हृदय ...........

नावें कितनी कितने नाविक ,स्मरण कहाँ मुझको इतना ।
स्मरण मात्र छिना झपटी ,धक्का -मुक्की लड़ना भिड़ना ।
इतना झकझोर दिया मन को ,अबतक दोलक सा झूल रहा ।
उद्विग्न हृदय ..............

धर्म कहीं ना कर्म सही, सब ओर मचा था लूट -पाट।
घटवारों की दादागिरी जिनके ठीके में रहा घाट ।
मल्लाह खड़ा था बांस लिए ,मेरे हाथों में फूल रहा ।
उद्विग्न हृदय .............

थे बाज दिखाई देते वो ,कहते थे लोग जिन्हें पंडा ।
भय शाम दाम अरु दंड भेद ,अनुरूप भक्त के हथकंडा ।
श्रधा शरमाई सिमट गई , ब्यापारी मोल वसूल रहा ।
उद्विगन हृदय -------

पंडा बोला नीली यमुना ,पीली दिखती गंगा माई ।
माँ सरस्वती अन्तः सलिला , वो पड़ती नहीं है दिखलाई ।
शायद उनका अब मोल नहीं , यह तर्क बड़ा अनुकूल रहा ।
उद्विग्न हृदय ...........
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Sunday, November 29, 2009

दास्ताने चमन

खुशबु न फूल में रही न खार में चुभन ।
अब यार दरअसल न रहा ये चमन चमन ।

वो गुलमुहर गुलाब सुर्ख ,ज़र्द हो गए ,
कोयल के कंठ में भी तल्खी छिछोरपन।
कलियाँ बिछीं जमीं पे डाली से टूट -टूट ,
कब तक संभाल पातीं बारूद की घुटन ।
हर शाख इक कफस है ,टहनी तनी गुलेल ,
खोलें न पंख दुबके ,परवाज आदतन ।

वो सरफरोश माली ,तारीख बन चुके ,
जिनको अजीज जान से हरदम रहा चमन ।

परवरदिगार मालिक ,इस बदनसीब का ,
ख़ुद बागवा लुटेरा ,फ़िर क्या करे चमन

'गुमनाम 'पैराहन रफू किए तमाम उम्र ,
तुर्बत पे किस लिए भला ये रेशमी कफ़न ।

Thursday, November 26, 2009

कल क्या होगा ?

जब तक गंगा की लहरों में गूंजेगा स्वर कल-कल का ।
तब तक ही जीवित जन गन का सपना कल के जीवन का ।

कल के लिए कभी तो सोचें क्या होगा इस दुनिया का ।
हिम के बिना हिमालय अपना नंगा अगर खड़ा होगा ।

आनेवाली पीढ़ी अपनी बूंद-बूंद को तरसेगी ।
दूषित वायुमंडल का प्रतिफल इतना तगड़ा होगा ।

हमने ही खोदी यह खाई हम को ही भरना होगा ।
समय आ गया सब को मिलकर समुचित कदम उठाने का ।

-रघुनाथ प्रसाद

Sunday, November 22, 2009

'हम और मैं '

नील गगन में पंख पसारे, उड़ता हुआ पखेरू मन था ।
खुली हवा सांसो में खुशबु, अथक पंख स्वर में गुंजन था ।

कानों में सरिता का कल-कल, आँखों में गुलजार चमन था ।
रोम -रोम पुलकित आह्लादित, बालसुलभ निर्मल चिंतन था ।

सब अपने थे, नहीं पराये घर अपना, अपना आँगन था ।
सारा विश्व समाहित जिसमें, केवल हम थे नहीं अहम् था ।

लगता जैसे सपना था वह, आँख खुली तो टूट गया ।
सहसा कोई क्रूर लुटेरा, हम से हम को लूट गया ।

'हम' खो गया हमारा क्या फिर, जो है मैं हूँ मेरा है ।
अपने हाथ पराये लगते, इतना घोर अँधेरा है ।

सरिता में बहता है शोणित, कल-कल में क्रंदन चीत्कार ।
रोम-रोम संत्रास समाया, आँखों में लिप्सा व्यापार ।

-रघुनाथ प्रसाद

Wednesday, November 18, 2009

"लोग उकताने लगे"

देख कर बदल, चमन के फूल घबराने लगे ।
क्या करें जब अब्रे सावन, आग बरसाने लगे ।

कुछ कहें इसके कबल, अपना गिरेवां झांकिए,
छोडिये कोरी नसीहत, लोग उकताने लगे ।

कर गए तकरीर वाईज, जाम पीना है गुनाह,
बैठकर खुद मयकदे में जाम छलकाने लगे ।

उम्र सारी कट गई, पहुंचे नहीं हैं गाँव तक,
चाँद तारों के सफ़र का ख्वाब दिखलाने लगे ।

कह रहे मुट्ठी में अपने है चरागे आलादीन,
बात रोटी की चली तो, दांत दिखलाने लगे ।

मुतमयन हैं आप, भारी भीड़ पीछे आ रही,
लोग हैं कि आप के साये से कतराने लगे ।

वास्ता दैरोहरम का, हो गया अब बेअसर,
कल तलक 'गुमनाम' थे, अवतार कहलाने लगे ।

- रघुनाथ प्रसाद

Monday, November 16, 2009

मुकम्मल बयान

अशआर नहीं दोस्त, मुकम्मल बयान है ।
तस्वीर आज की यह, उसकी जुबान है ।

अब काफ़िले दलों के, गश्ती में चल पड़े,
दल दल में जिस्म अटका, आफत में जान है ।

वह बोलने लगा तो, बोले चला गया,
शायद नहीं, वो सच-मुच ही बेजुबान है ।

उस सिरफिरे को शायद, इतनी खबर नहीं,
हर शक्स जाहिरा न सही, सावधान है ।

काटने लगा है ताल, हुए साज़ बेसुरे,
मुखड़े में, अन्तरे में लगा खींचतान है ।

श्रोता खड़े-खड़े ही, अब ऊँघने लगे,
कबसे न जाने अटकी, उनकी जुबान है ।

पटरी नहीं सड़क पर, दौड़ें हमारी रेल,
करिए यकीन, अपना यह संविधान है ।

-रघुनाथ प्रसाद

दहकता चमन

हरी भरी वादी फूलों की, जन्नत जिस फुलवारी में ।
बारूदों के टोंटे उगते, उसकी केसर क्यारी में ।

चुभते हैं अब शेर ग़ज़ल के, गजरा से आए बदबू,
लगता ताज़ा लहू भरा हो चांदी की पिचकारी में ।

ख़ुद ही घर में डाका डाले, और बने ख़ुद फरियादी,
जिस में छककर खाना खाते, छेद करे उस थारी में ।

प्यार वफ़ा का नाज़ुक रिश्ता तोल रहे हो सिक्कों से,
फर्क कहाँ बोलो जानेमन, आशिक औ व्यापारी में ।

दुश्मन भी इतना कर पते, शायद यह नामुम्किन था ।
जितना गहरा घाव दे गए, यार हमारे यारी में ।

दरक गया शीशे सा सीना घर आँगन है लहू लुहान,
कोने कोने आग सुलगती, घर के मारामारी में ।

-रघुनाथ प्रसाद

Saturday, November 14, 2009

"हौले से मुस्कुरा देना"

जो रात बीत गई है उसे भुला देना ।
नई सुबह को नए रंग से सजा देना ।
गुज़र गया जो वक़्त लौट के नहीं आता,
दिल-ए-नादाँ को क्यों बेवजह सज़ा देना ।

बुरा सा ख्वाब था वो, आँख खुली टूट गया,
उसी की याद लिए कल नहीं गँवा देना ।

फूल पत्थर पे खिलाएंगे, ज़िद हमारी थी,
किस लिए मौसम-ए हालत का सिला देना ।

ख़ाक हो जायेंगे जल जल के जलने वाले,
शरारा थामना हौले से मुस्कुरा देना ।

लगेगी आग तो लपटें यहाँ भी आएँगी,
सुलगती आग को वाजिब नहीं हवा देना ।

शाख़-शाख़ खिलें फूल, बुलबुलें चहकें,
वही कलम तलाशना, यहाँ लगा देना ।
-रघुनाथ प्रसाद

Friday, November 13, 2009

हमने क्या देखा

पूछो न इस शहर में हमने क्या देखा ।
कभी भुला न सकूँगा जो माजरा देखा ।

जुबान बंद बुलबुलों की शोर कौओं का,
शाख-शाख लगा बाज का पहरा देखा ।

वीरान क्यारियां थीं गुलमुहर थे अफसुर्दा,
करील नागफनी को हरा भरा देखा ।

अश्क लबरेज चश्म होठ पे हँसी लेकिन,
हाय मासूमियत को इस कदर डरा देखा ।

रोशनी बांटता जो राह दिखाने के लिए,
उसी चिराग तले स्याह अँधेरा देखा ।

नायाब खेल दिखा चोर सिपाही वाला,
सिपाही भाग रहे चोर को खड़ा देखा ।
-रघुनाथ प्रसाद

ब्यंग्य दोहे

दीन हीन असहाय को, ब्यर्थ न्याय की आस ।
जो समर्थ दोषी नही, कह गए तुलसी दास ।

अंधों की इस दौड़ में, औरों की मत सोच ।
जो भी आए सामने, लंगी मार दबोच ।

सीमा अब धरती नही, लक्ष गगन के पार ।
पंख खुले तो उड़ चलो, तजि कुल घर परिवार ।
कुंद हुई संवेदना, कुंठित रूग्ण विचार ।
निकट पड़ोसी कब मरा, ख़बर दिया अखबार ।

दे केवल उपदेश जो, ऐसे गुरु अनेक ।
कथनी करनी एक हो, ऐसा मिले न एक ।

रंगदारी, अपहरण ही, अब उत्तम व्यवसाय ।
हींग लगे ना फिटकरी, माया दौड़ी आय ।

शिथिल संकुचित पेशियाँ, लम्बी बड़ी जुबान ।
क्रिया हीनता ही सही, कर्मठ की पहचान ।

पढ़े लिखे अफसर बने, बुधुआ धरे नकेल ।
सनद प्रतिष्ठा बांटता, जो अनपढ़ बकलेल ।
-रघुनाथ प्रसाद

पहिचान

कसाई ने बकरे से पूछा -
"क्या है तेरी जातिगत पहचान?"
बकरे ने कहा -
"झटके से काटो तो हिंदू,
जिबह करो तो मुस्लमान"

Saturday, November 7, 2009

"यादों के झरोखें से"

सूनी शाम सुराही खाली, भूली बिसरी यादें, हम ।
कागज़ शेष सियाही सूखी, चलते-चलते थकी कलम ।
फिसलन भरी अँधेरी राहें, गलियारों में खोई सी,
लंबा सफर दूर है मंजिल, औ सांसो की गिनती कम ।
देख रहा अंदाज़ नया अब, भौवरों के मंडराने का ।
कागज़ के फूलों पर ज्यादा, बागों की कलिओं पर कम ।
चकाचौंध में खोते देखा, नित गुमराह जवानी को,
आँख मूँद कर दौड़ लगाते, कल क्या होगा किसको गम ।
कंक्रीट के जंगल उगते, मूक जीव बेघर बदहाल,
मानवता को रफ्ता-रफ्ता, निगल रहा नित स्वार्थ अहम् ।
पीर पिरो कुछ गीत बुने, 'गुमनाम' कभी चलते चलते,
किसे पड़ी जो सुनकर करता, नाहक अपनी आँखें नम ।
-रघुनाथ प्रसाद ।

Wednesday, September 30, 2009

"पेट अपना कुँआ हो गया"

यह शहर आलिशां हो गया ।
जर्फिदा अब जवां हो गया ।

रिश्ते-रिश्ते पे कीमत की पर्ची,
आदमी बस दुकां हो गया ।

चहचहाते नहीं अब परिन्दे,
यूँ कफस आशियां हो गया ।

ख़ुद परस्ती का अब तो ये आलम,
आदमी बदजुबां हो गया ।

ख़ुद-नुमायी के दौरे चलन में,
आइना बदगुमां हो गया ।

कौन पोंछे गरीबों के आंसू,
पेट अपना कुँआ हो गया ।

बिक रहा अब तो पानी हवा भी,
लो अधतिया फलां हो गया ।

तल्ख़ ज़ज़्बा दफ़न था ज़हन में,
रफ्ता-रफ्ता बयाँ हो गया ।

कल जो 'गुमनाम' लूटा चमन को,
अब वही बागवां हो गया ।

-रघुनाथ प्रसाद



"तुम वफ़ा के नाम पर"

तुम वफ़ा के नाम पर, कोरी कसम खाते रहे ।
हम हकीकत की गली में, ठोकरें पाते रहे ।

बद से बदतर दिन-ब-दिन, होता रहा हाले मरीज़,
आप बस झोला लिए, आते रहे जाते रहे ।

तान सीना कह गए, घर-घर जलाएँगे चराग
और खुद ही रोशनी से, आप घबराते रहे ।

ढल चुकी है रात कलि, छंट रही अब तीरगी,
कुत्ब को तारा सुबह का, आप बतलाते रहे ।

फेंक नीचे हड्डियाँ, खाते रहे शाही कवाब,
लड़ रहे कुत्ते गली के, आप मुस्काते रहे ।

चोट उतनी ही सही, जो काबिले बर्दाश्त हो,
अब नहीं मुमकिन न चीखें, ज़ख्म सहलाते रहे ।

सड़ चुके उस घाव पर, पट्टी चढ़ाना था फिजूल,
नश्तरे जर्राह से 'गुमनाम' कतराते रहे ।

-रघुनाथ प्रसाद

Wednesday, September 16, 2009

संकल्प

बहुत लंबे अंतराल तक सभी सुभेच्छु बंधुओं के साथ जुड़ने से वंचित रहने का कारन अस्वस्थता एवं आलस्य मात्र रहा । आगे जब तक शरीर साथ देगा, आप सभी बंधुओं से जुड़े रहने का प्रयास करता रहूँगा क्योंकि अपना तो संकल्प है.......
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झिलमिलाये दीप, लौ की रोशनी कामने न पाए ।
चल रही है साँस जब तक, साधना थमने न पाए ।

मानता यह कार्य दुष्कर, यातनाओं से भरा है ।
क्रांति पथ का सजग प्रहरी, कंटकों से कब डरा है ?
विष्व में समभाव की परिकल्पना न डगमगाए । चल रही.....

है देख अत्याचार को, मुहँ फेर लेना तो सरल ।
हां, भूल निज अधिकार को, चुपचाप पी ले क्यों गरल ।
लेखनी निष्पक्ष निर्भय, चेतना मरने न पाए । चल रही.....

मेघ से ढक जाये नभ, कड़के हज़ारों बिजलियाँ ।
कठिन झंझावात, मुसलाधार बरसें बदलियाँ ।
हृदय में जो दीप जलता, आस का, बुझने न पाए । चल रही.....

वंचना उपलब्धि की छलती रही, छलती रहेगी ।
सोचना क्यों, स्वार्थ में अन्धी दुनियाँ क्या कहेगी ।
कर्म से बस नेह, फल की कामना छलने न पाए । चल रही.....

कह सकें निर्बन्ध जो, कहती है कानों में हवायें,
या भटकते धुन्ध में, सहमे परिन्दों की सदायें,
धार हो अभिव्यक्ति में, संवेदना कामने न पाए । चल रही.....

-रघुनाथ प्रसाद

Tuesday, July 21, 2009

पाल ये बदल डालो

कई सुराख़ नज़र आ रहे सफीने में ।
ख्वाब साहिल का मगर पाल रहे सीने में।

तिरी नज़र को यार लग गई नज़र किसकी,
लगी तलाशने दानिस्तगी कमीने में।

चलो उतर के जरा हाथ पाँव तो मारें,
कोई मानी नहीं दहशत की साँस जीने में।

कौन कहता है बेबसी है, बेसहारे हैं,
अभी दमख़म है बहुत खून में, पसीने में।

जरूरी तो नहीं हम भी उसी राह चलें,
बानाएं रास्ता मौजों के तल्ख़ सीने में।

कुतुबनुमा न सही कुत्ब रहनुमा होगा,
जुनूननो जज्बा अगर आदमी के सीने में।

हो गए तार तार पाल ये बदल डालो,
वक्त जाया न करो, बार बार सीने में।

चलो माना की यूँ 'गुमनाम' हीं फना होंगे,
नहीं पैमाना गिनो यार कभी पीने में।

- रघुनाथ प्रसाद

Saturday, July 4, 2009

कलयुग


हे मुरलीधर, मोर मुकुटधर,
गोवर्धन, गिरिधारी ।
केशव, माधव, पार्थसार्थी,
नटवर, कुंज बिहारी ।

कुटिल कंस, शकुनी, दुःशासन,
नगर-नगर पर हावी ।
अंधे राजा के हाथों में,
पड़ी कोष की चाबी ।

धर्मराज तरसे रोटी को,
भीम करें दरवानी ।
स्वस्ति गान सहदेव कर रहें,
नकुल परोसें पानी ।

बृहन्नला बन अर्जुन नाचें,
बजा-बजा कर ताली ।
चीर हरण का दंश झेलतीं,
गली-गली पांचाली ।

माखन चोर बता दो इतना,
क्या पाया उत्कोच ।
आँखें बन्द सुदर्शन कुंठित,
बदल गई है सोच ।

- रघुनाथ प्रसाद

अंधेरा क्यों?

दरवाजे पर धूप खड़ी, अंदर घनघोर अंधेरा क्यों?
चौकठ पर बर्छी भाला ले पहरेदार लुटेरा क्यों?

कंधे बैठा बाज व्याध के पिंजरा कम्पा हाथ लिए,
तनी गुलेल पेड़ की टहनी चक्रव्यूह का घेरा क्यों?

घने धुन्ध में ढ़ूँढ़ रहीं हैं डैना ताने ललमुनियाँ।
कहाँ हमारा रैन बसेरा, उत्तर ने मुँह फेरा क्यों?

मेघ भटकते दिशाहीन, धरती प्यासी, अंकुर सूखें।
झंझावात तड़ित डाले, पर्वत के ऊपर डेरा क्यों?

यक्ष प्रश्न बन खड़ा, सही उत्तर कोई दे पाएगा?
पोषण का प्रहरी बन जाता, शोषक का मौसेरा क्यों?

Tuesday, June 23, 2009

"किश्तों में रोज़ मरते हैं"

लोग उम्रे दराज़ की दुआएँ करते हैं
यहाँ ये हाल है, किश्तों में रोज़ मरते हैं

और जीने का कहीं कोई भी मकसद तो हो ?
बेवजह ख्वाब का पैबंद रफू करते हैं

किया गुनाह तो सिला गुनाह का लाजिम
वो होंगे और जो अपनी सजा से डरते हैं

गिला नसीब का करना बुजदिली यारों,
शेर दिल आप ही तकदीर लिखा करते हैं

आरजू आसमां छूने की सबकी होती,
चन्द ही लोग हवाओं का रुख पकड़ते हैं

चलो गुमनाम कहीं दूर जा के सो जाएँ,
यहाँ तो कब्र के मुर्दे भी शोर करते हैं

-रघुनाथ प्रसाद

Saturday, June 20, 2009

"जीने का मज़ा"

ज़िंदगी मक्सद जहाँ गर, फिर मज़ा जीने में है ।
क्यों शिकन चेहरे पे आए दर्द जो सीने में है ।

कत्ल करना काटना ही काम है तलवार का,
वह नुमाया हाथ में कि म्यान पशमीने में है ।

खोज ला ऐसी दवा, जड़ से मिटा दे रोग जो,
गम नहीं कड़वी सही, गर फायदा पीने में है ।

काम कोई भी न मुश्किल, ठान ले दिल में अगर,
देर है तो पहल में, शुरुआत कर देने में है ।

है कोई मसला कि जिसका हल कभी मुम्मकिन नहीं?
हौसला जज़्बा अगर, इन्सान के सीने में है ।

जी लिए अपनी ख़ुशी के वास्ते तो क्या जिए,
लुत्फ तो औरों की खातिर ज़िंदगी जीने में है ।

-रघुनाथ प्रसाद

Tuesday, June 16, 2009

प्यार की तलाश

तन बदन छलनी किया , तपती सलाखें गोध कर ।
गीत गाती बांसुरी , जब थाम ले उसको अधर ।

बदनुमा बेडौल पत्थर भी , नुमाइश में सजे ,
गर तबियत से तराशा जाए उसको ढूंढ़ कर ।

इस चमन में फूल खिलते गीत गातीं बुलबुलें ,
मुस्कुराते हम अगर सुख दुःख निवाला बांटकर ।

मोम पत्थर को करे , तासीर इतना प्यार में ,
आजमा के देख लें ख़ुद , ख़ुदनुमाई छोड़कर ।

हमनिवाला हमसफर हमराज सारे खो गए ,
हम नहीं दिखते कहीं अब , मैं हुआ सारा शहर ।

बेरहम बेदिल जहाँ को छोड़कर जाता चला ,
दिल भले टूटा हो लेकिन मैं न टूटा इस कदर ।

काश ! ये होता पता , रिश्ते महज व्यापार हैं ,
दूर इतना दूर जाता फिर नहीं आता इधर ।

- रघुनाथ प्रसाद

Monday, June 15, 2009

कुछ दर्द बाँट दीजिये

अब आइये जनाब ज़रा पास आइये ,
क्या कहना चाहते हैं , कुछ तो बताइये ।

अरसे से कैद लगते, मन में कई सवाल ,
आखें बता रहीं हैं, जितना छुपाइये ।

ज़ख्मों को छुपाने से नासूर ही बनेगें ,
कुछ दर्द बाँट दीजिए, कुछ खुद उठाइये ।

साहिल पे डूबने से , बेहतर है मेरे यार ,
कुछ हाथ पाँव फेंकिये गोते लगाइए ।

यूँ भागते रहेंगे , कब तक डरे - डरे ,
रुकिए जरा मुड़कर कोई पत्थर उठाइए ।

-रघुनाथ प्रसाद

Sunday, June 14, 2009

तूफान सा क्यों है ?

खामोश निगाहों में तूफान सा क्यों है ?
अपने घरों में आदमी मेहमान सा क्यों है ?

होठों पे थरथरी है फिर भी जुबां बंद ,
इंसानियत का हाल बेजुबान सा क्यों है ?

खुदगर्ज तो नहीं थे ,हम इस कदर कभी ,
आदायगी भी फर्ज का एहसान सा क्यों है ?

बेखौफ दरिन्दे हैं सहमें हुए से लोग ,
इस शहर का माहौल बियावान सा क्यों है ?

हँस हँस के पिए जा रहे जो आदमी का खून ,
उन भेड़ियों का चेहरा इंसान सा क्यों है ?

-रघुनाथ प्रसाद

Friday, June 12, 2009

"ज़ख्म-ऐ-जिगर"

यूँ तो खाए हुए हैं चोट जमाने भरके,
जिगर को चीर गए तीर हमारे घर के

ज़ख्म भरता नहीं कि एक और ज़ख्म नया,
खैरियत पूछ रहे पीठ पे हमला कर के

ग़जब है रीत यहाँ पंख कतरने वाले,
हौसला बाँटते हैं आँख में पानी भर के

फ़लक के छोर तलक जाल बिछा है शयद,
लौट आते यहीं परवाज उड़ाने भर के

उम्र गुज़री है यूँ आगे भी गुज़र जाएगी,
कभी देखा ही नहीं खुद पे भरोसा करके

कभी हंसने ना दिया कुलके खैरख्वाहों ने,
कभी रोया भी नहीं आज तलक जी भरके

- रघुनाथ प्रसाद

"दर्द की दवा"

दर्द का दर्द से आसना हो गया ।
दर्द दिल का मुक्कमल फ़ना हो गया ।

फ़र्क गम और खुशी में न होता जहाँ,
उस शहर में ही अपना मकाँ हो गया ।

तीर उनके निशाने पे बेशक लगे,
जो हुए बे-असर हादसा हो गया,

जो थे कातिल उन्हीं की अदालत लगी,
खुदखुशी हमने की, फैसला हो गया ।

जिसने कश्ती दूबोई थी मझधार में,
अब सुना है, वही रहनुमा हो गया ।

सिरफिरे थे, चिरागाँ जलाते रहे,
जिसने बस्ती जलाई खुदा हो गया ।

-रघुनाथ प्रसाद

"मुस्कुरा कर विदा कीजिए"

ना दवा दीजिए ना दुआ कीजिए ।
हो सके तो मुझे भुला दीजिए ।

कुछ उकेरी थी तस्वीर मैंने कभी,
इन दिवारों पे, उनको मिटा दीजिए

जिस तस्वीर में अक्स मेरा लगे,
अपने कमरे से उसको हटा दीजिए

कोई गुजरा हुआ पल न साले जिगर,
सब खतूतों को मेरे जला दीजिए

गर हवाओं में आए हमारी-सदा,
कह-कहों में उन्हें झट दबा दीजिए

ख्वाब में ना कोई हम भरम पाल लें,
आँख लगने से पहले जगा दीजिए

आँख नम ना करें अलविदा की घड़ी,
मुस्कुरा कर मुझे अब विदा कीजिए

-रघुनाथ प्रसाद

अभिलाषा

चाह नहीं डॉक्टर बनने की,
नहीं चाह अभियन्ता की ।
चाह नहीं मैं बनूं कलेक्टर,
नहीं फ़िल्म अभिनेता की ।

नहीं चाह वैज्ञानिक बनकर,
नई खोज कर नाम कमाऊँ ।
या साहित्य जगत में कोई,
कीर्तिमान पा कर इठलाऊँ ।

चाह नहीं उद्योगपति बन
नये नये उद्योग लगाऊँ ।
या बन कर मैं कला विशारद,
पद्म-विभूषण पदवी पाऊँ ।

भूत भविष्य जानने की भी,
ना कोई जिज्ञासा है ।
हे देवों के देव प्रभु ।
बस मात्र यही अभिलाषा है ।

एक बार बस निर्वाचन में,
मुझको नाथ जिता देना ।
"जनता की सेवा कर पाऊँ"
दिल्ली तक पहुँचा देना ।

-रघुनाथ प्रसाद

Wednesday, June 10, 2009

"ये भी कोई जीना है"

जिधर ले चली हवा चले तुम ,
ये भी कोई चलना है ?
यह तो बस कोरा कायरपन ,
स्वयं आप को छलना है ।

जीवन में संघर्ष नहीं तो ,
जीने का आकर्षण क्या?
अभिलाषा फूलों की हो तो,
काँटों बीच निकलना है ।

मन में दृढ़ संकल्प, लगन,
निश्चय यदि आगे बढ़ने का ।
पर्वत से निर्झर जैसा गिर,
बाधाओं से लड़ना है ।

भेड़ ढोर सा चलते जाना ,
पेट पालना सो जाना ।
नाम इसी का अगर जिंदगी ,
फिर तो बेहतर मरना है ।

-रघुनाथ प्रसाद

Tuesday, June 9, 2009

न बाँधों नीड़ से इनको

न बाँधों नीड़ से इनको,
नवोदित पंख खुलने दो।
खुले आकाश में इनको,
स्वयं निर्बाध उड़ने दो।

बनाले संतुलन अपना ,
परों में शक्ति भर जाए।
हो विकसित आत्मबल ,
इन्हें गिरने संभलने दो।

कभी बदले हवा का रुख,
कभी मौसम बदलता है.
विषम परिवेश से जूझें ,
इन्हे अभ्यास करने दो।

नया विस्तार अम्बर का,
लिए सूरज निकलता है।
चुनौती से भरी राहें ,
त्वरित रफ्तार भरने दो।

अभी जो आ रहा है कल,
वो इनका है, हम न होंगे।
बनें सक्षम ये भविष्य में,
समय के साथ चलने दो।

-रघुनाथ प्रसाद