Wednesday, December 15, 2010

अशआर पेशे खिदमत फसले बहार के |
उल्लू तमाम काबिज डाली अनार के |

इस अंजुमन में होना गर आप को शरीक,
तो आइये शर्मोहया गैरत उतार के |

आने लगेगी खुशबू बदबू सनी गली से,
ना हो यकीं तो देखें दो घूंट मार के |

किससे करेंगे बातें होशोहवास की,
बैठे हैं शेख साहब सागर डकार के |

गंजे के हाथ में वो कंघी थमा के बोले,
महफ़िल में आप बैठें जुल्फें संवार के |

दौलत मुकाम शोहरत आयेंगे आप चलके,
पहने इजार कुरता अचकन उतार के |

अब तो खुदा से यारों है इल्तजा हमारी,
दरिया को मय से भर दे,पानी निकारके |

"गुमनाम" है वो शायर जिसने कभी न पी,
चल तालियाँ बटोरें पीकर उधार के |
             -----------------------
             रघुनाथ प्रसाद

Monday, December 13, 2010

जब इच्छाओं का ज्वार थम जाए ,
संवेदनाओं की अनुभूति कम जाए ,
प्रतिकार ,समझौता पर थम जाए ,
उदगार वर्फ सा जम जाए ,
         तो समझ लें ,बुढापा आ गई .

जब आस-पास धुंधलका छाये ,
दूर दृष्टी प्रखर हो जाए ,
सहज हो औरों को समझाना ,
पर खुद को समझा न पायें ,
      तो समझलें,बुढापा आ गई .

जब स्मृति भूत से जुड़ने लगे ,
वर्त्तमान कपूर सा उड़ने लगे,
जो भी प्रश्न करें खुद से,
यक्ष प्रश्न बन बिसूरने लगे,
        तो समझलें बुढापा आ गई .

जब कदम साहस के, डगमगाने लगें,
अभिव्यक्ति के स्वर लडखडाने लगे,
भटकाने लगें चिर परीचित राहें,
तिनके का सहारा लुभाने लगे,
      तो समझलें बुढापा आ गई.

जब अपने ही अंग विद्रोह पर उतरें,
कहिये कुछ, कुछ और  कर गुजरें,
जब गजल ठुमरी,सकुचाने लगे,
मन वीणा निर्गुण सुनाने लगे,
    तो समझलें बुढापा आ गई

               रघुनाथ प्रसाद .

Sunday, September 26, 2010

अनोखा तर्क

छोटा था बुधिया जब मेरे घर आती थी
शौचालय धोती थी, मैला उठाती थी
बदले में अन्न और बचा-खुचा भोजन कुछ,
दो रुपये मासिक तनख्वाह मात्र पाती थी
बबुआजी कहती वह, स्नेहसिक्त नज़रों से,
दूर से निहार, बड़े प्यार से बुलाती थी
जिज्ञासु बालक मन, प्रश्न किया मैया से,
बुधिया क्या कुतिया है इतना भय खाती हो
दूर रखवाती क्यों उसका कटोरा तुम ?
दूर से ही ऊपर से रोटी गिराती हो
मैया निरुत्तर थी, भृकुटी कमान हुई
बिलख पड़ा, दादी तब गोद में उठाई थी
बालक भगवान रूप, समझे क्या छूत-छात,
बड़ा होगा समझेगा, दादी समझाई थी
याद मुझे शाम एक, माघ का महिना था
बुधिया के बर्तन को हाथ मैं लगाया
दादा का रौद्र रूप, घर में कोहराम मचा,
मुझसे क्या भूल हुई, समझ नहीं पाया था
देह लेप गोबर से, बहार के कूएँ पर,
बजते थे दांत, तीन बार मैं नहाया था
गंगाजल, तुलसीदल लेने के बद कहीं,
देह ढाँप कपडे से, आँगन में आया था
सात साल बाद एक और शाम यादगार ,
पढ़कर विद्यालय,जब मैं घर आया था
देखा दरवाजे पर,बुधिया के बेटे को,
साथ-साथ दादा के,आसन जमाया था
तैर गए प्रश्न कई,एक साथ आँखों में,
सात साल पहले का दृश्य याद आया था
अनुभवी आँखों ने,भाव पढ़े आँखों के ,
दादा ने पास बड़े प्यार से बुलाया था
बुधिया का बेटा यह,साहब का चपरासी,
दादा ने नन्हकू से परिचय करवाया था
रहा नहीं मेहतर अब,धर्म से इसाई है,
दादा का तर्क पुन:समझ नहीं पाया था
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रघुनाथ प्रसाद

गीत

जिस दिन से हो गई परायी, रिश्तों की पहिचान |
रोते-रोते विदा हो गई, होठों से मुस्कान |

चलते-फिरते लोग लगें ज्यों, हिलती-डुलती छाया |
औपचारिक संवाद रसीले, हृदय हीन है काया |
माया की ऊंगली में डोरी, कठपुतली इंसान -
रोते-रोते विदा हो गई, होठों से मुस्कान |

जितना जोड़े सुख के साधन, सुख से उतनी दूरी |
चप्पन भोग सजी थाली, पर ललचाती मजबूरी |
क्षणिक स्वांस के अंकगणित में, उलझा मन नादान -
रोते-रोते विदा हो गई, होठों से मुस्कान |

तोषक तकिया, पलंग मसहरी, नींद कहाँ से लाये |
चिंता की गठरी लादे मन, भटके राह न पाये |
बंद सभी खिड़की दरवाज़े, शंकित सहमा प्राण -
रोते-रोते विदा हो गई, होठों से मुस्कान |

जिस परिकल्पित सुख के पीछे, निशदिन दौड़े भागे |
पास पहुँच कर पाता उसको, दूर खड़ा वह आगे |
कस्तूरी मृग सा चंचल मन, खुद से ही अनजान -
रोते-रोते विदा हो गई, होठों से मुस्कान |

- रघुनाथ प्रसाद 

उषा दर्शन

सिसकती धरा, अश्रु आँचल भिंगोते |
विदा हो रही यामिनी रोते-रोते |

खिसकने लगे मुहँ छिपाते सितारे |
हुआ चाँद धूसर, शितिज को निहारे |
परिंदे चहकने लगे, छोड़ खोंते |
विदा हो रही यामिनी रोते-रोते |

अकेला गगन में खड़ा शुक्र तारा |
मुखर हो चला है जलाशय किनारा |
छलकते घड़े अंग चूनर भिंगोते |
विदा हो रही यामिनी रोते-रोते |

दिये बुझ गए अंततः झिलमिला के |
सँजोया तरल स्नेह सारा लुटा के |
लगी भागने जिंदगी भोर होते |
विदा हो रही यामिनी रोते-रोते |

दमकने लगा हिम शिखर का कँगूरा |
बिछा स्वर्ण चादर, छुपा रंग भूरा |
उड़ा हंस लहरों पे मोती पिरोते | 
विदा हो रही यामिनी रोते-रोते |          

"अभी दूर है गाँव"

थकने लगे अभी से  क्योंकर, चंचल आतुर पाँव ?
अभी तुमे कोसों जाना हैं, अभी दूर है गाँव |
.......... मुसाफिर अभी दूर है गाँव |

कब निकला सूरज का गोला, कब मस्तक पर आया |
चलता रहा पथिक तू धुन में, कहाँ ध्यान दे पाया |
सुरसा सी बढती परछाई, अरु तरुओं की  छाँव |
.......... मुसाफिर अभी दूर है गाँव |

दम उखड़ा पग पनही टूटी, दुखती रही बिवाई |
जोड़-जोड़ में दर्द पिरोती, सिहर-सिहर पुरवाई |
रैन बसेरा उन्मुख पंछी, गूंजे कलरव  काँव |
.......... मुसाफिर अभी दूर है गाँव |

देख पथिक उस नाविक को, जो नाव लिये मझधार |
धैर्य डोर से पाल संभाले, साहस से पतवार |
गाता गीत सुरीले स्वर में, खेता जाता नाव |
.......... मुसाफिर अभी दूर है गाँव |

दीपक का है मोल तभी तक, जब तक जलती बाती |
ठहर गयी जिस ठौर नदी, वह नदी नहीं रह जाती |
चलना ही जीवन कहलाये, मौत जहाँ ठहराव |
.......... मुसाफिर अभी दूर है गाँव |

-रघुनाथ प्रसाद       

Saturday, September 25, 2010

"कैसा तेरा गाँव ?"

कैसा तेरा गाँव साथिया,कैसा तेरा गाँव?
कहीं फसल सूखे मुर्झाए,कहीं बहाए बाढ़.
कहीं जलातीं लू की लपटें,कहीं ठंढ की मार.
कहीं काँपती थर-थर गुरवत,जलता कहीं अलाव .
साथिया ..........
नदियाँ स्वयं नीर पी जाएँ,तरुवर फल खा जाएँ .
भूखे प्यासे पशु परिंदे,नाहक आस लगाए .
बूढ़ा बरगद ओढ़े बैठा,अपनी शीतल छाँव .
साथिया ..........
यमन,विलावल,अहिर भैरवी,ध्रुपद,राग दरबारी .
कजरी,आल्हा,बिरहा,ठुमरी,तोड़ी,राग पहाड़ी .
होड़ लगी है ताल ठोककर,सरगम में टकराव .
साथिया ..........
देती क्या सन्देश अराजक भेद-भाव की भाषा .
ध्वज,परचम,डंडे पर चढ़कर,बन्दर करें तमाशा.
गली-गली विस्फोट धमाका,चौराहे पथराव .
साथिया ..........
धरती खोदे महल उठाये,ये कैसी चतुराई ?
जितना ऊँचा उठा मुडेरा,उतनी गहरी खाई .
देखो कहीं कहर ना ढाए,मौसम का बदलाव .
साथिया ..........
रघुनाथ प्रसाद

Friday, September 24, 2010

सरिता

शैशव सी निर्मल निश्छल ,चंचल कल-कल जल धारा. 
किलक-किलक गिरती उठती,मुखरित पर्वत गलियारा .
रवि की प्रथम किरण चुपके,आती छू-छू कर जाती .
सतरंगी परिधान पहन तब,इत-उत दौड़ लगाती .
खेल-खेल में हुई किशोरी,उच्छ्रिन्खल इतराती.
कभी दौड़ टीले पर चढ़ती,कभी कहीं छुप जाती .
पता कहाँ उस पगली को,किस पथ है उसको जाना .
उसे सुहाता उछल-कूद,बस आगे कदम बढ़ाना .
प्रकृति गोद में पली- बढ़ी,यौवन ने रूप निखारा .
निर्झरणी उद्दाम हुई,दुबली-पतली जल धारा .
राह बनी जिस ओर गई वह,लहराती बल खाती .
तोड़-फोड़ जंगल पर्वत,यौवन मद में इठलाती .
पर्वत से उतरी जैसे,समतल धरती पर आई .
लगी नवेली दुलहन हो ज्यों,शर्मीली सकुचाई .
तट की सीमा में सिमटी,घूँघट तरुओं का डाल .
डोली में दुल्हन जाए,जैसे अपने ससुराल .
मंथर गति कल-कल करती वह, आगे बढ़ती जाए.
नई वधु आँगन में रुन-झुन,पायल ज्यों खनकाए .
डगर-डगर अमृत बाँटे,फसलों में प्राण जगाए .
आह्लादित ममता मानो,शिशु को पयपान कराये .
नारी-रूपा,सुधा-तरंगिनी,जन-जीवन आधार .
तटिनी,निर्झरणी शैवालिनी,तुम्हें नमन शत बार .

वसंत

प्रातः की गुन-गुनी धूप में सिहरन का एहसास .
ले संदेसा पछेया आई ,आ पहुंचा मधुमास
पादप के पीले पत्ते अब ,गीत फागुनी गाते.
डाल छोड़ कर नाच हवा में ,धरती पर सो जाते .
टेंसू का गदराया यौवन ,गाल हो गए लाल ,
अमराई में बौर लदगए ,झुकी आम की डाल .
सरसों में दाने भर आये ,फुनगी पर कुछ फूल .
अलसी सर पर कलसी थामे ,राह गई ज्यों भूल .
खड़ा मेंड़ पर लिये लकुटिया ,कृषक हाथ कटी थाम .
झूम-झूम गेहूं की बाली ,झुक-झुक करे सलाम .
पछेया तो हो गई बावरी ,करने लगी ठिठोली .
धरती पर से धूल उठाकर ,लगी खेलने होली .
दंभ ,द्वेष ,मनमैल,भेद ,जलगए होलिका संग ,
गले मिले पुलकित आह्लादित ,भाँति-भाँति के रंग
मिटा गया आयु की सीमा ,कैसा यह ऋतुराज .
होली के मदमस्त ताल पर ,झूम रहे सब आज .
दंतहीन पिचके गालों पर पसरा रंग गुलाबी ,
जाने क्या सन्देश दे गया ,यह मधुमास शराबी .

              रघुनाथ प्रसाद

Thursday, September 23, 2010

आखिरी पडाव का सफ़र

आखिरी पडाव का सफ़र, माथे पर झुरमुठ की छावं |
सहलाते बैठकर यहाँ, थके हुए पीठ और पाँव |
मिलते ही मीत हो गए,  अनजाने हमउम्र लोग,
अद्भुत अपनापन का भाव, साले मन किंचित वियोग |
अपने मेहमान बन गए, औपचारिक सेवा सद्भाव |

विरल श्वेत बादलो के बीच, झाँक रहा धूसर मयंक |
पंछी सब एक डाल के, ना कोई राजा ना रंक |
कलरव में निर्गुण की धुन, सरगम में कम्पन ठहराव |

चिबुक संग नासिका मिली, दसन गए खुला छोड़ द्वार |
जिह्वा निर्बाध दौड़ती, चौकठ ना कोई दीवार |
शब्द उलझ कंठ में फंसे, मन में कुछ कहने की चाव |

बचपन की यादों के पल, जोड़ते हैं बात की कड़ी |
हंस लेते बैठ कर यहाँ, हृदय खोल रोज दो घडी |
बतरस के भिन्न भिन्न रंग, अनुभव में किंचित टकराव |

जटिल कई प्रशन अनछुए ,सहज लगे बाँट परस्पर |
चेहरे की गहरी शिकन, पल भर को जाती पसर |
चलते ही साथ हो लिए, चिंता तनहाई तनाव |

यन्त्रवत प्रचंड वेग से सडकों पर भागती सी भीड़ |
दाने तलाशने उड़े विहग बृंद छोड़-छोड़ नीड़ |
अपने दिन याद आ रहे, आया अब कितना बदलाव |
          -----------------------------------
                     -रघुनाथ प्रसाद

Wednesday, August 25, 2010

ग़ज़ल "ये ज़रूरी नहीं जो भी कहे जुबान कहे"

ये जरुरी नहीं जो भी कहे जुबान कहे .
सिलें जो होठ ,ये जमीं वो आसमान कहे .

किसी अदब किसी जुबान से नहीं मुम्किन .
जो बात नजर कहे ,पलक बेजुबान कहे .

जरूर इर्द गिर्द मुफलिसी पली होगी ,
आसमां चूमता ये महल आलिशान कहे

कोई सदमा जरुर दिल में दबा रक्खा है .
तिरी लबों की हंसी ,यार बाईमान कहे.

हवा का रुख बता रहा बहार आएगी ,
झडे हैं शाख के पत्ते ,शजर वीरान कहे .

बड़े सिद्दत से बागवां इन्हें पाला होगा ,
महकते फूल ,दिलफरेब गुलिस्तान कहे .
                 रघुनाथ प्रसाद

Saturday, July 24, 2010

मुखौटा

दिखने में होने में अंतर ,कितना होता यह जग जाहिर .
भ्रम तो दुनियां को छलने का ,हम स्वयं आप को छलते हैं .

किस मोह पाश का बंधन यह ,आखिर कैसी यह मज़बूरी ,
चेहरे पर कृत्रिम शान ओढ़ ,अपनो के बीच निकलते हैं .

सारे खिड़की दरवाजों पर ,पहरे का बोझ उठाते फिर ,
हर नजर झांकती सी लगती इतना लोगों से डरते हैं .

जाने क्या सुख सहमी सकुची ,संदिग्ध हवा में जीने का ,
इस घुटन भरी गलियारे में,जीने पर गौरव करते हैं .

साहस का शाल ओढ़ कर भी ,कायरता कहाँ छुपा पाते ,
है यही वजह कि दर्पण के ,सन्मुख जाने से डरते हैं .

उन्मुक्त हवा में जीने का ,अद्भुत आनंद कहाँ पाते ,
मानस में पनपे हीन भाव ,अनुकूल हवा में फलते हैं.

           रघुनाथ प्रसाद

Friday, July 23, 2010

uplabdhiyan :ak prashn

धरती सागर नभमंडल क्या
हम पहुंचे चाँद-सितारों तक
हम छान चुके निर्झर नदियाँ
जंगल हिमशिखर पहाड़ों तक .

अवनी ताल की गहराई से
खनिजों को खोद निकाला है
फिर जाँच-परख ,संशोधित कर
इच्छित सांचों में ढाला है .

सदियों पहले ,सागर तल की
गहराई तक हम झांक चुके
रत्नाकर के तहखाने में
क्या-क्या संचित हम आँक चुके .

क्या जीव-जंतु क्या वनस्पति
संरचना सब की जान गए .
हर तंतु-तंतु की जटिल क्रिया
जांची विधिवत ,पहचान गए .

शीशे की नलिकाओं में हम
मानव का बीज उगा सकते
पौधों की कलम कवन पूछे
हम अपनी कलम उगा सकते .

हम वायु वेग से सफ़र करें
बिजली से बातें करते हैं
पल भर में विश्व मिटाने की
क्षमता का भी दम भरते हैं .

वैचित्र्य प्रकृति का अनावृत
करके देखा परखा जाना
पर हे मानव तूने अब तक
क्या स्वयं स्वयं को पहचाना ?

       रघुनाथ प्रसाद

Thursday, July 22, 2010

gazal

एक ही कश्ती में निकले साथ हम हो के सवार .
मौत मेरी ख़ुदकुशी ,उनका शहीदों में शुमार .

नज्म मेरी थी मुसलसल ,आप ने आवाज दी ,
आप सर आँखों पे बैठे ,शक्ल मेरी नागवार .

रात को भी रात कहिये ,तो उन्हें लगता बुरा ,
कबतलक उजड़े चमन को ,हम कहें बागे बहार .

रात दिन जो एक कर ,गढ़ता इमारत उम्र भर ,
सर पे उसके छत नहीं ,ना पेड़ कोई सायेदार

आदमी हर दौर का तो ,एक सा होगा नहीं ,
काम आएगी नहीं ,हर बार चंगेजी कटार .

पर क़तर परवाज के ,हैं मुतमईन लेकिन जनाब ,
फद्फदाया फिर उड़ा वह ,देखिये आँखे पसार .

पर्वती सैलाब शायद ,रोकना मुमकिन नहीं ,
काम आएँगी नहीं 'गुमनाम'राहें पेंचदार .
           रघुनाथ प्रसाद

Monday, July 5, 2010

वहशी हवा का झोका

वहशी हवा का झोका, पर्दा उठा दिया.
कातिल हसीन चेहरा, उरियां दिखा दिया.

इस ओर भजन कीर्तन, उस ओर से नमाज.
दरम्यान मयकदे का रुतवा बढ़ा दिया.

हर काफिया गजल का दहाड़ने लगा,
साकी ने आज शायद, खालिस पिला दिया.

उड़ते रहे हवा में, देखे हसीन ख्वाब,
टूटा नशा तो सीधे, धरती पे ला दिया.

मनहूसियत रवां थी, होली की शाम को,
दो घूंट मिला ठर्रा, होली मना लिया.

जख्मे जिगर हमारा, भरने लगा शायद,
नश्तर बतौर तोहफा, उसने थमा दिया.

हैवानियत के आगे, खुलती नहीं जुबान,
इंसानियत को किसने, बुजदिल बना दिया.

हर रोज उछलता है 'गुमनाम' ये सवाल.
वाजिब जवाब कोई, अबतक कहाँ दिया.

            -  रघुनाथ प्रसाद

Wednesday, June 30, 2010

ग़ज़ल

तेल सारा जल गया, भींगी हुई बाती तो है.
टिमटिमाती लौ सही वह, राह दिखलाती तो है.

एक पत्ता भी दरख्तों का, नहीं गिरता यहाँ,
लोग कहते तेज आंधी, बारहा आती तो है.

आज भी ठंढा है चुल्ल्हा, लौट कर बिल्ली गई,
आ चलो अब सो पड़े, माँ लोरिआं गाती तो है.

वो गए सो फिर न आये, लोग समझाते रहे,
चिट्ठियों के मार्फ़त, उनकी दुआ आती तो है.

फैसला इजलास का, इक उम्र में मुमकिन नहीं,
शुक्र है हर माह इक, तारीख पड़ जाती तो है.

गम नहीं जो हादसे में, शहर के कुछ घर जले,
सेंकने को रोटियां, कुछ आग मिल जाती तो है.

आप मादरजाद नंगा हो गए तो क्या हुआ?
बेहयाई देख कर, खुद शर्म शर्माती तो है.
::::::::
-रघुनाथ प्रसाद

Tuesday, June 29, 2010

गीत गाता हूँ चमन के पंछियों से सुर मिला के

पीर रिसती हृदय के हर तंतु से तब तिलमिला के .
गीत गाता हूँ चमन के पंछियों से सुर मिला के .

तार वीणा के खिंचे तब मीड का विस्तार होता ,
तार पर मिजराब के आघात से झंकार होता ,
थाप खा मिरदंग बजता ,ताल में सुर लय मिला के .
गीत गाता हूँ चमन के पंछियों से सुर मिला के

बांसुरी के हृदय में इतने अगर ना छेद होते ,
टेर में संगीत मधुरिम किस तरह वादक पिरोते .
बांस नलिका साज बनती ,तप्त छड से तन जला के .
गीत गाता हूँ चमन के पंछियों से सुर मिला के .

पीर अपनी या पराई ,या विरह की वेदनाएं ,
या विषम परिवेश की ,संचित गहन संवेदनाएं .
युग समय का गीत गढ़ती अश्रु से दीपक जला के .
गीत गाता हूँ चमन के पंछियों से सुर मिला के .

               - रघुनाथ प्रसाद

Friday, June 25, 2010

गीत

इतिहास सवारे दुनियां का, अपना भूगोल गवां बैठे.
सुख दुःख में फर्क नहीं कोई, ऐसे मुकाम पर आ बैठे.

धरती सूरज चंदा चलते तो, मौसम आप बदलता है,
होना बदलाव सुनिश्चित है, मन में विश्वास जमा बैठे.

बस सदा कर्म से नेह रहा, फल की आशा बेमानी था,
तोड़े नाते सब ग्रंथों से, गीता से नेह लगा बैठे.

हम ने केवल चलना सीखा, चलते रहना चलते जाना,
पग ने मापी इतनी दूरी, मंजिल का पता भुला बैठे.

मेवा उसका खुद चखने को, कोई अखरोट लगाता क्या?
थी सुनी कहानी बचपन में, सिद्धांत वही अपना बैठे.

साधें केवल हित अपना ही, फिर अंतर क्या पशु मानव में,
क्या यही प्रगति का मार्ग उचित, जो सहज आज अपना बैठे.

- रघुनाथ प्रसाद

दोहे

लोकतंत्र के हाट में, लोक लाज नीलाम.
जितना खोटा माल है, उतना ऊँचा दाम.

मोल तोल की दौड़ में, बिन पटरी की रेल.
ज्ञानी जन कहते इसे, राजनीति का खेल.

माया की बरसात है, दोनों हाथ बटोर.
हाथी फिरे बाजार में, स्वान मचाएं शोर.

डाल डाल पर शोर है, होगा पुनः चुनाव.
आहत पंछी नीड़ में, सहलाते हैं घाव.

गौरैया किसको चुने, किसके सर हो ताज.
इस डाली घुग्घू डटे, उस डाली पर बाज.
- रघुनाथ प्रसाद

Saturday, June 5, 2010

कहीं बरसात का पानी जरूर ठहरा है

कहीं बरसात का पानी जरूर ठहरा है.
तमाम वादियों में तिशनगी का पहरा है.

हुई है कैद चाँदनी किसी की मुट्ठी में,
चाँद निकला है मगर, स्याह रात कोहरा है .

कहीं उजड़ा है चमन बागवां के हाथों से,
किसी के सर पे सजा शानदार सेहरा है.

थकीं आजान,सबद ,शंख भजन की चीखें,
किसी के बंद दरीचे हैं ,कोई बहरा है.

लगेगा वक्त बहुत यार ,इसके भरने में,
किसी अजीज का तोहफ़ा है, जख्म गहरा है.

अदब से लीजिए प्रसाद उनकी मर्जी का,
जमीं पे खौफ का साया, फलक पे पहरा है.

- रघुनाथ प्रसाद

मुक्तक

मत कुरेदो परत राख की यूँ,
इसके अन्दर भी शोले पड़े हैं.
ये मुनासिब नहीं उनकी खातिर,
जिनके घर कागजों पे खड़े हैं.

यूँ न सहलाओ जख्मों को मेरे,
ये विरासत में हम को मिले हैं.
जी रहे हैं इसी के सहारे,
हम इसी के सहारे बढे हैं.

बड़ी बेढब हमारी ये बस्ती,
यहाँ कातिल बड़े मश्खरे हैं.
भोंक देते हैं सीने में खंजर,
पूछते फिर ये कैसे मरे हैं.

कितनी नज़रों पे डालेंगे परदे,
हर गली हर सड़क अब मुखातिब.
बेवजह आइना पोंछते हैं,
दाग से जिनके चेहरे भरे हैं.

- रघुनाथ प्रसाद

Tuesday, April 20, 2010

गीत

यूँ तो खाए हुए हैं चोट जमाने भर के.
जिगर को चीर गए तीर हमारे घर के .

जख्म भरता नहीं की एक और जखम नया ,
खैरियत पूछ रहे पीठ पे हमला कर के .

गजब है रस्म यहाँ पंख कतरनेवाले ,
हौसला बाँट रहे आँख में पानी भर के .

मुझे हैरत से देखने का सबब वो जाने ,
मैं तो बस पेश किया जामे वफ़ा डर डर के .

फलक के छोर तलक जाल बिछा है शायद ,
लौट आते यहीं परवाज उड़ाने भर के .

यूँ ही गुजरी है जीस्त और गुजर जायेगी ,
कभी देखा ही नहीं खुद पे भरोसा कर के .

हाय हँसने दिया खुल के खैरख्वाहों ने ,
कभी रोया भी नहीं आजतलक जी भर के .

चलो गुमनाम दयारों में कहीं खो जाएँ ,
सो गए लोग घरौदों में अँधेरा कर के .

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रघुनाथ प्रसाद

Saturday, April 17, 2010

दोहे

दुर्योधन चोरी किये भीष्म हो लिये साथ
दुर्जन के संग होम में ,ब्यर्थ जलाये हाथ


मन क्रोधित तब कंठ से ,मधुर वचन बिलगाय
गरम तवा पर जल पड़े ,बने भाप उड़ जाय


वाणी में वाणी बसे ,जो मन शीतल होय
कमल पात पर डोलता ,बनकर मोती तोय


लाभ दिखे कुछ कथन से ,कहिये तब निज बात
पर्वत पर ना जल थमे ,मेघ झरे दिन रात


चाटुकार सेवक जहाँ ,मूरख के सर ताज
एक भाव बिकते वहां ,खाजा भाजी नाज


कर थामे ममता सुखी ,बालक पा मुंह कौर
देने का सुख और है ,पाने का सुख और


परिभाषित सुख दुःख सदा ,बहुरुपिया पर्याय
सब की अपनी सोच है ,सब की अपनी राय


गोल चाँद रोटी दिखे ,सद्यः करें उपाय
जठर अगन दहके जभी ,दावानल बन जाय


रक्त दान कोई करे ,कोई खून बहाय
कद ऊंचा किसका भला ,कोई तो बतलाय


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रघुनाथ प्रसाद

Thursday, January 14, 2010

आँसू तुम्हें नमन शतबार

तुम्हें नमन शतबार, आँसू! तुम्हें नमन शतबार।
बूंद बूंद मोती का दाना, था कितना अनमोल खज़ाना।
पिरो लिये गीतों में चुन चुन, वह अनुपम उपहार।
आँसू तुम्हें नमन शतबार।

तुम्हें नमन शतबार बाधा, तुम्हें नमन शतबार।
जब जब खड़े हुए तुम तनकर, कठिन चुनौती संमुख बनकर।
दृढ़तर हुआ आत्मबल, धीरज, साहस का संचार।
आँसू तुम्हें नमन शतबार।

तुम्हें नमन शतबार, निंदक! तुम्हें नमन शतबार।
तिरछी बाँकी तेरी बोली, अंतर्मन की आँखे खोली।
अनदेखे दुर्गुण थे जितने, तत्क्षण लिया सुधार।
निंदक! तुम्हे नमन शतबार।

तुम्हें नमन शतबार, दुर्दिन तुम्हें नमन शतबार।
दुःख से समझौता करवाया, थोड़े में जीना सिखलाया।
हुए लचीले, सुर में बजते,मन वीणा के तार।
दुर्दिन! तुम्हें नमन शतबार।

तुम्हें नमन शतबार, विपदा! तुम्हें नमन शतबार।
तुमने जितनी बार जलाया, तप तप नया कलेवर पाया।
मैल जलगए मन कंचन के, आया नया निखार।
विपदा! तुम्हें नमन शतबार।
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रघुनाथ प्रसाद

Wednesday, January 13, 2010

आजादी और सपने

गुलामी गई छोड़ अपना कफ़न,
खुशामद किये जा रहे आदतन।

वही शामे मुजरा, वही मयकशी,
नए सिर्फ चहरे, पुराना चलन।

मिट्टी तो बदली, न बदला वो साँचा,
खुले पाँव में बेड़ियों की चुभन।

वही ढोल डमरू, नया बस मदारी,
सदी से जमूरे का नंगा बदन।

बाँटे वो कल, आज हम बाँटते,
सियासत निभाए, पुराना चलन।

वही रस्मे डाली, सलामी व तोहफ़ा,
सजाने को मंडप, उजाड़े चमन।

कब्ले आजादी, बुने ख्वाब जितने,
गुमनाम की डायरी में दफन।
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रघुनाथ प्रसाद

Tuesday, January 12, 2010

गीत

जल रहा गाँव जल रहा शहर,
सहमा सहमा सा जन जीवन।
अब युद्ध भूमि सड़कें गलियां,
बंदी गृह लगता घर आँगन।

स्वासों में भर बारूद अनल,
पथ भ्रमित हुआ है बागी मन।

खो चुके अर्थ अपने अपने,
सिजदा ,अरदास ,भजन पूजन।
बो रही ज़हर, अमृत वाणी,
रणनीति बना दर्शन चिंतन।

रोटी की महिमा के आगे,
नतमस्तक है, वैरागी मन।

सब कुछ खो कर कुछ पाने को,
आतुर कैसा यह पागलपन।
अपनी पहचान मिटा कर भी,
उद्धत लेने को वैभव धन।

प्रभुता लिप्सा जंजीर सबल,
बांधता ही जाता त्यागी मन।

कैसी विघटन की चली हवा,
बंट रही धरा, बंट रहा गगन।
रिश्ते नाते व्यवहार बटे,
चटका शीशे सा अपनापन।

ढूंढे टूटे परिवेशों में,
रस प्रेमसुधा अनुरागी मन।

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रघुनाथ प्रसाद

Friday, January 8, 2010

विकल्प

पर्दे की अब कहाँ जरूरत
खुले मंच पर खेल।
बिन पटरी की दौड़ रही है,
नई सदी की रेल ।
सरे आम हो रही लूट,
चोरी कैसे कहलाये?
सब की दाढ़ी में तिनका,
अब चोर किसे ठहराए।
क्या अंतर दीवारों को यदि,
आँखे भी मिल जाए।
बस्ती सारी खड़ी दिगंबर,
किस से कौन लजाये।
कदाचार ,काली करतूतें,
सदाचार कहलाये।
भ्रष्ट आचरण,
कालाधन,
सम्मान प्रतिष्ठा पाए।
शीर्षासन में खड़ी हो गई,
शब्द कोष की भाषा।
बेहतर होगा बदल डालना,
शब्दों की परिभाषा।
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रघुनाथ प्रसाद

Thursday, January 7, 2010

जीना सिखा दिया

कैसे करूँ अदा मैं, ऐ दोस्त शुक्रिया ।
अंदाजे सफ़र तू ने ,जीना सिखा दिया।

तनहाई काटती न ,करे शोर -गुल तबाह ,
ऐसी लगन लगी ,दीवाना बना दिया ।

गुड़ की मिठास क्या है ,उस दिन पता चला ,
जिस रोज़ यार तू ने ,मिर्च खिला दिया

आता है तरस उन पे ,उनके मिजाज पे ,
जिनकी वफा ने मुझको ,मुफलिस बना दिया

आवाज नहीं आती ,अब उस मचान से ,
इस सिरफिरे ने सहसा ,सीढी हटा लिया ।

वो रास्ता नहीं थी जिस राह चल पड़े ,
बढ़ने लगे कदम तो ,रास्ता बना लिया ।

'गुमनाम' बहे आंसू ,लगते रहे ख़ुशी के
जज्बा -ऐ -सफ़र तू ने ,इतना हंसा दिया ।

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रघुनाथ प्रसाद

Sunday, January 3, 2010

शहर नाबिनों का

नाबिनों का शहर सुना वह ,दर्पण जिन्हें थमा आया ।
सूरज कैद हुआ जिस घर में ,दीपक वहीँ जला आया ।

महफ़िल या रंगीन तबेला ,जाने ये ऊपर वाला ,
गीत रसीले मधुर कंठ से ,गाकर जहां सुना आया ।

पीर पराई ढ़ोते-ढ़ोते ,थका बावरा दीवाना ,
गूंगे बहरों की बस्ती में, गला फाड़ चिल्ला आया।

मन में टीस तड़प बेचैनी ,साट चेहरे पर मुस्कान ,
नुक्कड़ पर बेबाक मसखरा ,लोगों को बहला आया ।

बुड्ढा एक निर्बसन बैठा ,काँप रहा थर -थर देखा ,
अपनी शाल उतारा तन से ,चुपके उसे ओढा आया ।

जाने कब उर्बरा जमीं हो ,जाने कब बरसे बादल ,
बंजर सूखी धरती में ,बे मौसम बीज लगा आया ।

था ऐसा सिरफिरा जुनूनी ,मिला मुझे जब पहली बार ,
जीना है तो मरना सीखो ,हंसते -हंसते फरमाया ।

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रघुनाथ प्रसाद