यूँ तो खाए हुए हैं चोट जमाने भर के.
जिगर को चीर गए तीर हमारे घर के .
जख्म भरता नहीं की एक और जखम नया ,
खैरियत पूछ रहे पीठ पे हमला कर के .
गजब है रस्म यहाँ पंख कतरनेवाले ,
हौसला बाँट रहे आँख में पानी भर के .
मुझे हैरत से देखने का सबब वो जाने ,
मैं तो बस पेश किया जामे वफ़ा डर डर के .
फलक के छोर तलक जाल बिछा है शायद ,
लौट आते यहीं परवाज उड़ाने भर के .
यूँ ही गुजरी है जीस्त और गुजर जायेगी ,
कभी देखा ही नहीं खुद पे भरोसा कर के .
हाय हँसने दिया खुल के खैरख्वाहों ने ,
कभी रोया भी नहीं आजतलक जी भर के .
चलो गुमनाम दयारों में कहीं खो जाएँ ,
सो गए लोग घरौदों में अँधेरा कर के .
---------------------------------------
रघुनाथ प्रसाद
Tuesday, April 20, 2010
Saturday, April 17, 2010
दोहे
दुर्योधन चोरी किये भीष्म हो लिये साथ ।
दुर्जन के संग होम में ,ब्यर्थ जलाये हाथ ।
दुर्जन के संग होम में ,ब्यर्थ जलाये हाथ ।
मन क्रोधित तब कंठ से ,मधुर वचन बिलगाय ।
गरम तवा पर जल पड़े ,बने भाप उड़ जाय । वाणी में वाणी बसे ,जो मन शीतल होय ।
कमल पात पर डोलता ,बनकर मोती तोय । लाभ दिखे कुछ कथन से ,कहिये तब निज बात ।
पर्वत पर ना जल थमे ,मेघ झरे दिन रात । चाटुकार सेवक जहाँ ,मूरख के सर ताज ।
एक भाव बिकते वहां ,खाजा भाजी नाज । कर थामे ममता सुखी ,बालक पा मुंह कौर ।
देने का सुख और है ,पाने का सुख और । परिभाषित सुख दुःख सदा ,बहुरुपिया पर्याय ।
सब की अपनी सोच है ,सब की अपनी राय । गोल चाँद रोटी दिखे ,सद्यः करें उपाय ।
जठर अगन दहके जभी ,दावानल बन जाय । रक्त दान कोई करे ,कोई खून बहाय ।
कद ऊंचा किसका भला ,कोई तो बतलाय । ----------------------
रघुनाथ प्रसाद
Subscribe to:
Posts (Atom)