यूँ तो खाए हुए हैं चोट जमाने भर के.
जिगर को चीर गए तीर हमारे घर के .
जख्म भरता नहीं की एक और जखम नया ,
खैरियत पूछ रहे पीठ पे हमला कर के .
गजब है रस्म यहाँ पंख कतरनेवाले ,
हौसला बाँट रहे आँख में पानी भर के .
मुझे हैरत से देखने का सबब वो जाने ,
मैं तो बस पेश किया जामे वफ़ा डर डर के .
फलक के छोर तलक जाल बिछा है शायद ,
लौट आते यहीं परवाज उड़ाने भर के .
यूँ ही गुजरी है जीस्त और गुजर जायेगी ,
कभी देखा ही नहीं खुद पे भरोसा कर के .
हाय हँसने दिया खुल के खैरख्वाहों ने ,
कभी रोया भी नहीं आजतलक जी भर के .
चलो गुमनाम दयारों में कहीं खो जाएँ ,
सो गए लोग घरौदों में अँधेरा कर के .
---------------------------------------
रघुनाथ प्रसाद
Tuesday, April 20, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment