Tuesday, April 20, 2010

गीत

यूँ तो खाए हुए हैं चोट जमाने भर के.
जिगर को चीर गए तीर हमारे घर के .

जख्म भरता नहीं की एक और जखम नया ,
खैरियत पूछ रहे पीठ पे हमला कर के .

गजब है रस्म यहाँ पंख कतरनेवाले ,
हौसला बाँट रहे आँख में पानी भर के .

मुझे हैरत से देखने का सबब वो जाने ,
मैं तो बस पेश किया जामे वफ़ा डर डर के .

फलक के छोर तलक जाल बिछा है शायद ,
लौट आते यहीं परवाज उड़ाने भर के .

यूँ ही गुजरी है जीस्त और गुजर जायेगी ,
कभी देखा ही नहीं खुद पे भरोसा कर के .

हाय हँसने दिया खुल के खैरख्वाहों ने ,
कभी रोया भी नहीं आजतलक जी भर के .

चलो गुमनाम दयारों में कहीं खो जाएँ ,
सो गए लोग घरौदों में अँधेरा कर के .

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रघुनाथ प्रसाद

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