Saturday, July 4, 2009

कलयुग


हे मुरलीधर, मोर मुकुटधर,
गोवर्धन, गिरिधारी ।
केशव, माधव, पार्थसार्थी,
नटवर, कुंज बिहारी ।

कुटिल कंस, शकुनी, दुःशासन,
नगर-नगर पर हावी ।
अंधे राजा के हाथों में,
पड़ी कोष की चाबी ।

धर्मराज तरसे रोटी को,
भीम करें दरवानी ।
स्वस्ति गान सहदेव कर रहें,
नकुल परोसें पानी ।

बृहन्नला बन अर्जुन नाचें,
बजा-बजा कर ताली ।
चीर हरण का दंश झेलतीं,
गली-गली पांचाली ।

माखन चोर बता दो इतना,
क्या पाया उत्कोच ।
आँखें बन्द सुदर्शन कुंठित,
बदल गई है सोच ।

- रघुनाथ प्रसाद

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