Saturday, June 5, 2010

मुक्तक

मत कुरेदो परत राख की यूँ,
इसके अन्दर भी शोले पड़े हैं.
ये मुनासिब नहीं उनकी खातिर,
जिनके घर कागजों पे खड़े हैं.

यूँ न सहलाओ जख्मों को मेरे,
ये विरासत में हम को मिले हैं.
जी रहे हैं इसी के सहारे,
हम इसी के सहारे बढे हैं.

बड़ी बेढब हमारी ये बस्ती,
यहाँ कातिल बड़े मश्खरे हैं.
भोंक देते हैं सीने में खंजर,
पूछते फिर ये कैसे मरे हैं.

कितनी नज़रों पे डालेंगे परदे,
हर गली हर सड़क अब मुखातिब.
बेवजह आइना पोंछते हैं,
दाग से जिनके चेहरे भरे हैं.

- रघुनाथ प्रसाद

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