यह शहर आलिशां हो गया ।
जर्फिदा अब जवां हो गया ।
रिश्ते-रिश्ते पे कीमत की पर्ची,
आदमी बस दुकां हो गया ।
चहचहाते नहीं अब परिन्दे,
यूँ कफस आशियां हो गया ।
ख़ुद परस्ती का अब तो ये आलम,
आदमी बदजुबां हो गया ।
ख़ुद-नुमायी के दौरे चलन में,
आइना बदगुमां हो गया ।
कौन पोंछे गरीबों के आंसू,
पेट अपना कुँआ हो गया ।
बिक रहा अब तो पानी हवा भी,
लो अधतिया फलां हो गया ।
तल्ख़ ज़ज़्बा दफ़न था ज़हन में,
रफ्ता-रफ्ता बयाँ हो गया ।
कल जो 'गुमनाम' लूटा चमन को,
अब वही बागवां हो गया ।
-रघुनाथ प्रसाद
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