सूनी शाम सुराही खाली, भूली बिसरी यादें, हम ।
कागज़ शेष सियाही सूखी, चलते-चलते थकी कलम ।
फिसलन भरी अँधेरी राहें, गलियारों में खोई सी,
लंबा सफर दूर है मंजिल, औ सांसो की गिनती कम ।
देख रहा अंदाज़ नया अब, भौवरों के मंडराने का ।
कागज़ के फूलों पर ज्यादा, बागों की कलिओं पर कम ।
चकाचौंध में खोते देखा, नित गुमराह जवानी को,
आँख मूँद कर दौड़ लगाते, कल क्या होगा किसको गम ।
कंक्रीट के जंगल उगते, मूक जीव बेघर बदहाल,
मानवता को रफ्ता-रफ्ता, निगल रहा नित स्वार्थ अहम् ।
पीर पिरो कुछ गीत बुने, 'गुमनाम' कभी चलते चलते,
किसे पड़ी जो सुनकर करता, नाहक अपनी आँखें नम ।
-रघुनाथ प्रसाद ।
कलम थके न आपकी यही सुमन की चाह।
ReplyDeleteइस रचना के कथ्य में सुन्दर भाव अथाह।।
टिप्पणीकारों की सुविधा के लिए कृपया वर्ड वेरीफिकेशन हँटाने का कुछ उपाय करें।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com