Thursday, July 22, 2010

gazal

एक ही कश्ती में निकले साथ हम हो के सवार .
मौत मेरी ख़ुदकुशी ,उनका शहीदों में शुमार .

नज्म मेरी थी मुसलसल ,आप ने आवाज दी ,
आप सर आँखों पे बैठे ,शक्ल मेरी नागवार .

रात को भी रात कहिये ,तो उन्हें लगता बुरा ,
कबतलक उजड़े चमन को ,हम कहें बागे बहार .

रात दिन जो एक कर ,गढ़ता इमारत उम्र भर ,
सर पे उसके छत नहीं ,ना पेड़ कोई सायेदार

आदमी हर दौर का तो ,एक सा होगा नहीं ,
काम आएगी नहीं ,हर बार चंगेजी कटार .

पर क़तर परवाज के ,हैं मुतमईन लेकिन जनाब ,
फद्फदाया फिर उड़ा वह ,देखिये आँखे पसार .

पर्वती सैलाब शायद ,रोकना मुमकिन नहीं ,
काम आएँगी नहीं 'गुमनाम'राहें पेंचदार .
           रघुनाथ प्रसाद

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