दिखने में होने में अंतर ,कितना होता यह जग जाहिर .
भ्रम तो दुनियां को छलने का ,हम स्वयं आप को छलते हैं .
किस मोह पाश का बंधन यह ,आखिर कैसी यह मज़बूरी ,
चेहरे पर कृत्रिम शान ओढ़ ,अपनो के बीच निकलते हैं .
सारे खिड़की दरवाजों पर ,पहरे का बोझ उठाते फिर ,
हर नजर झांकती सी लगती इतना लोगों से डरते हैं .
जाने क्या सुख सहमी सकुची ,संदिग्ध हवा में जीने का ,
इस घुटन भरी गलियारे में,जीने पर गौरव करते हैं .
साहस का शाल ओढ़ कर भी ,कायरता कहाँ छुपा पाते ,
है यही वजह कि दर्पण के ,सन्मुख जाने से डरते हैं .
उन्मुक्त हवा में जीने का ,अद्भुत आनंद कहाँ पाते ,
मानस में पनपे हीन भाव ,अनुकूल हवा में फलते हैं.
रघुनाथ प्रसाद
Saturday, July 24, 2010
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sundar
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