वहशी हवा का झोका, पर्दा उठा दिया.
कातिल हसीन चेहरा, उरियां दिखा दिया.
इस ओर भजन कीर्तन, उस ओर से नमाज.
दरम्यान मयकदे का रुतवा बढ़ा दिया.
हर काफिया गजल का दहाड़ने लगा,
साकी ने आज शायद, खालिस पिला दिया.
उड़ते रहे हवा में, देखे हसीन ख्वाब,
टूटा नशा तो सीधे, धरती पे ला दिया.
मनहूसियत रवां थी, होली की शाम को,
दो घूंट मिला ठर्रा, होली मना लिया.
जख्मे जिगर हमारा, भरने लगा शायद,
नश्तर बतौर तोहफा, उसने थमा दिया.
हैवानियत के आगे, खुलती नहीं जुबान,
इंसानियत को किसने, बुजदिल बना दिया.
हर रोज उछलता है 'गुमनाम' ये सवाल.
वाजिब जवाब कोई, अबतक कहाँ दिया.
- रघुनाथ प्रसाद
Monday, July 5, 2010
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बहुत सटीक रचना !!
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