शैशव सी निर्मल निश्छल ,चंचल कल-कल जल धारा.
किलक-किलक गिरती उठती,मुखरित पर्वत गलियारा .
रवि की प्रथम किरण चुपके,आती छू-छू कर जाती .
सतरंगी परिधान पहन तब,इत-उत दौड़ लगाती .
खेल-खेल में हुई किशोरी,उच्छ्रिन्खल इतराती.
कभी दौड़ टीले पर चढ़ती,कभी कहीं छुप जाती .
पता कहाँ उस पगली को,किस पथ है उसको जाना .
उसे सुहाता उछल-कूद,बस आगे कदम बढ़ाना .
प्रकृति गोद में पली- बढ़ी,यौवन ने रूप निखारा .
निर्झरणी उद्दाम हुई,दुबली-पतली जल धारा .
राह बनी जिस ओर गई वह,लहराती बल खाती .
तोड़-फोड़ जंगल पर्वत,यौवन मद में इठलाती .
पर्वत से उतरी जैसे,समतल धरती पर आई .
लगी नवेली दुलहन हो ज्यों,शर्मीली सकुचाई .
तट की सीमा में सिमटी,घूँघट तरुओं का डाल .
डोली में दुल्हन जाए,जैसे अपने ससुराल .
मंथर गति कल-कल करती वह, आगे बढ़ती जाए.
नई वधु आँगन में रुन-झुन,पायल ज्यों खनकाए .
डगर-डगर अमृत बाँटे,फसलों में प्राण जगाए .
आह्लादित ममता मानो,शिशु को पयपान कराये .
नारी-रूपा,सुधा-तरंगिनी,जन-जीवन आधार .
तटिनी,निर्झरणी शैवालिनी,तुम्हें नमन शत बार .
Friday, September 24, 2010
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बहुत बढ़िया प्रस्तुति .......
ReplyDeleteअच्छी पंक्तिया की रचना की है ........
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