पर्दे की अब कहाँ जरूरत
खुले मंच पर खेल।
बिन पटरी की दौड़ रही है,
नई सदी की रेल ।
सरे आम हो रही लूट,
चोरी कैसे कहलाये?
सब की दाढ़ी में तिनका,
अब चोर किसे ठहराए।
क्या अंतर दीवारों को यदि,
आँखे भी मिल जाए।
बस्ती सारी खड़ी दिगंबर,
किस से कौन लजाये।
कदाचार ,काली करतूतें,
सदाचार कहलाये।
भ्रष्ट आचरण,
कालाधन,
सम्मान प्रतिष्ठा पाए।
शीर्षासन में खड़ी हो गई,
शब्द कोष की भाषा।
बेहतर होगा बदल डालना,
शब्दों की परिभाषा।
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रघुनाथ प्रसाद
Friday, January 8, 2010
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बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार
lajawaab rachna.
ReplyDelete"पर्दे की अब कहाँ जरूरत
ReplyDeleteखुले मंच पर खेल ।
बिन पटरी की दौड़ रही है ,
नई सदी की रेल ।"
बहुत सुन्दर और सटीक लिखा है अपने !! बहुत बहुत धन्यवाद !!