Sunday, January 3, 2010

शहर नाबिनों का

नाबिनों का शहर सुना वह ,दर्पण जिन्हें थमा आया ।
सूरज कैद हुआ जिस घर में ,दीपक वहीँ जला आया ।

महफ़िल या रंगीन तबेला ,जाने ये ऊपर वाला ,
गीत रसीले मधुर कंठ से ,गाकर जहां सुना आया ।

पीर पराई ढ़ोते-ढ़ोते ,थका बावरा दीवाना ,
गूंगे बहरों की बस्ती में, गला फाड़ चिल्ला आया।

मन में टीस तड़प बेचैनी ,साट चेहरे पर मुस्कान ,
नुक्कड़ पर बेबाक मसखरा ,लोगों को बहला आया ।

बुड्ढा एक निर्बसन बैठा ,काँप रहा थर -थर देखा ,
अपनी शाल उतारा तन से ,चुपके उसे ओढा आया ।

जाने कब उर्बरा जमीं हो ,जाने कब बरसे बादल ,
बंजर सूखी धरती में ,बे मौसम बीज लगा आया ।

था ऐसा सिरफिरा जुनूनी ,मिला मुझे जब पहली बार ,
जीना है तो मरना सीखो ,हंसते -हंसते फरमाया ।

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रघुनाथ प्रसाद

2 comments:

  1. बहुत खुबसूरत रचना
    महफ़िल या रंगीन तबेला ,जाने ये ऊपर वाला ,
    गीत रसीले मधुर कंठ से ,गाकर जहां सुना आया ।
    बहुत बहुत आभार ..................

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  2. था ऐसा सिरफिरा जुनूनी ,मिला मुझे जब पहली बार ,
    जीना है तो मरना सीखो ,हंसते -हंसते फरमाया ।

    aapki rachnayen zindgi se judi hain, har sher behatareen, naseehaten samete hue.

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