जल रहा गाँव जल रहा शहर,
सहमा सहमा सा जन जीवन।
अब युद्ध भूमि सड़कें गलियां,
बंदी गृह लगता घर आँगन।
स्वासों में भर बारूद अनल,
पथ भ्रमित हुआ है बागी मन।
खो चुके अर्थ अपने अपने,
सिजदा ,अरदास ,भजन पूजन।
बो रही ज़हर, अमृत वाणी,
रणनीति बना दर्शन चिंतन।
रोटी की महिमा के आगे,
नतमस्तक है, वैरागी मन।
सब कुछ खो कर कुछ पाने को,
आतुर कैसा यह पागलपन।
अपनी पहचान मिटा कर भी,
उद्धत लेने को वैभव धन।
प्रभुता लिप्सा जंजीर सबल,
बांधता ही जाता त्यागी मन।
कैसी विघटन की चली हवा,
बंट रही धरा, बंट रहा गगन।
रिश्ते नाते व्यवहार बटे,
चटका शीशे सा अपनापन।
ढूंढे टूटे परिवेशों में,
रस प्रेमसुधा अनुरागी मन।
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रघुनाथ प्रसाद
सहमा सहमा सा जन जीवन।
अब युद्ध भूमि सड़कें गलियां,
बंदी गृह लगता घर आँगन।
स्वासों में भर बारूद अनल,
पथ भ्रमित हुआ है बागी मन।
खो चुके अर्थ अपने अपने,
सिजदा ,अरदास ,भजन पूजन।
बो रही ज़हर, अमृत वाणी,
रणनीति बना दर्शन चिंतन।
रोटी की महिमा के आगे,
नतमस्तक है, वैरागी मन।
सब कुछ खो कर कुछ पाने को,
आतुर कैसा यह पागलपन।
अपनी पहचान मिटा कर भी,
उद्धत लेने को वैभव धन।
प्रभुता लिप्सा जंजीर सबल,
बांधता ही जाता त्यागी मन।
कैसी विघटन की चली हवा,
बंट रही धरा, बंट रहा गगन।
रिश्ते नाते व्यवहार बटे,
चटका शीशे सा अपनापन।
ढूंढे टूटे परिवेशों में,
रस प्रेमसुधा अनुरागी मन।
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रघुनाथ प्रसाद
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