इतिहास सवारे दुनियां का, अपना भूगोल गवां बैठे.
सुख दुःख में फर्क नहीं कोई, ऐसे मुकाम पर आ बैठे.
धरती सूरज चंदा चलते तो, मौसम आप बदलता है,
होना बदलाव सुनिश्चित है, मन में विश्वास जमा बैठे.
बस सदा कर्म से नेह रहा, फल की आशा बेमानी था,
तोड़े नाते सब ग्रंथों से, गीता से नेह लगा बैठे.
हम ने केवल चलना सीखा, चलते रहना चलते जाना,
पग ने मापी इतनी दूरी, मंजिल का पता भुला बैठे.
मेवा उसका खुद चखने को, कोई अखरोट लगाता क्या?
थी सुनी कहानी बचपन में, सिद्धांत वही अपना बैठे.
साधें केवल हित अपना ही, फिर अंतर क्या पशु मानव में,
क्या यही प्रगति का मार्ग उचित, जो सहज आज अपना बैठे.
- रघुनाथ प्रसाद
Friday, June 25, 2010
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बहुत सटीक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसाधें केवल हित अपना ही, फिर अंतर क्या पशु मानव में,
ReplyDeleteक्या यही प्रगति का मार्ग उचित, जो सहज आज अपना बैठे.
परहित मे ही स्वहित भी ढूंढे, देखें परिवर्तन
कहने लगेंगे, इस जग को स्वर्ग बना बैठे
अच्छी कविता।