Thursday, September 23, 2010

आखिरी पडाव का सफ़र

आखिरी पडाव का सफ़र, माथे पर झुरमुठ की छावं |
सहलाते बैठकर यहाँ, थके हुए पीठ और पाँव |
मिलते ही मीत हो गए,  अनजाने हमउम्र लोग,
अद्भुत अपनापन का भाव, साले मन किंचित वियोग |
अपने मेहमान बन गए, औपचारिक सेवा सद्भाव |

विरल श्वेत बादलो के बीच, झाँक रहा धूसर मयंक |
पंछी सब एक डाल के, ना कोई राजा ना रंक |
कलरव में निर्गुण की धुन, सरगम में कम्पन ठहराव |

चिबुक संग नासिका मिली, दसन गए खुला छोड़ द्वार |
जिह्वा निर्बाध दौड़ती, चौकठ ना कोई दीवार |
शब्द उलझ कंठ में फंसे, मन में कुछ कहने की चाव |

बचपन की यादों के पल, जोड़ते हैं बात की कड़ी |
हंस लेते बैठ कर यहाँ, हृदय खोल रोज दो घडी |
बतरस के भिन्न भिन्न रंग, अनुभव में किंचित टकराव |

जटिल कई प्रशन अनछुए ,सहज लगे बाँट परस्पर |
चेहरे की गहरी शिकन, पल भर को जाती पसर |
चलते ही साथ हो लिए, चिंता तनहाई तनाव |

यन्त्रवत प्रचंड वेग से सडकों पर भागती सी भीड़ |
दाने तलाशने उड़े विहग बृंद छोड़-छोड़ नीड़ |
अपने दिन याद आ रहे, आया अब कितना बदलाव |
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                     -रघुनाथ प्रसाद

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