छोटा था बुधिया जब मेरे घर आती थी
शौचालय धोती थी, मैला उठाती थी
बदले में अन्न और बचा-खुचा भोजन कुछ,
दो रुपये मासिक तनख्वाह मात्र पाती थी
बबुआजी कहती वह, स्नेहसिक्त नज़रों से,
दूर से निहार, बड़े प्यार से बुलाती थी
जिज्ञासु बालक मन, प्रश्न किया मैया से,
बुधिया क्या कुतिया है इतना भय खाती हो
दूर रखवाती क्यों उसका कटोरा तुम ?
दूर से ही ऊपर से रोटी गिराती हो
मैया निरुत्तर थी, भृकुटी कमान हुई
बिलख पड़ा, दादी तब गोद में उठाई थी
बालक भगवान रूप, समझे क्या छूत-छात,
बड़ा होगा समझेगा, दादी समझाई थी
याद मुझे शाम एक, माघ का महिना था
बुधिया के बर्तन को हाथ मैं लगाया
दादा का रौद्र रूप, घर में कोहराम मचा,
मुझसे क्या भूल हुई, समझ नहीं पाया था
देह लेप गोबर से, बहार के कूएँ पर,
बजते थे दांत, तीन बार मैं नहाया था
गंगाजल, तुलसीदल लेने के बद कहीं,
देह ढाँप कपडे से, आँगन में आया था
सात साल बाद एक और शाम यादगार ,
पढ़कर विद्यालय,जब मैं घर आया था
देखा दरवाजे पर,बुधिया के बेटे को,
साथ-साथ दादा के,आसन जमाया था
तैर गए प्रश्न कई,एक साथ आँखों में,
सात साल पहले का दृश्य याद आया था
अनुभवी आँखों ने,भाव पढ़े आँखों के ,
दादा ने पास बड़े प्यार से बुलाया था
बुधिया का बेटा यह,साहब का चपरासी,
दादा ने नन्हकू से परिचय करवाया था
रहा नहीं मेहतर अब,धर्म से इसाई है,
दादा का तर्क पुन:समझ नहीं पाया था
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रघुनाथ प्रसाद
Sunday, September 26, 2010
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wah. behad achchi kavita hai.
ReplyDeleteसुंदर भाव।
ReplyDeletesunder bhavon se bhari hui
ReplyDeleteभाई जी
ReplyDeleteसादर नमस्कार
कविता अनोखा तर्क स्टीक