Thursday, January 14, 2010

आँसू तुम्हें नमन शतबार

तुम्हें नमन शतबार, आँसू! तुम्हें नमन शतबार।
बूंद बूंद मोती का दाना, था कितना अनमोल खज़ाना।
पिरो लिये गीतों में चुन चुन, वह अनुपम उपहार।
आँसू तुम्हें नमन शतबार।

तुम्हें नमन शतबार बाधा, तुम्हें नमन शतबार।
जब जब खड़े हुए तुम तनकर, कठिन चुनौती संमुख बनकर।
दृढ़तर हुआ आत्मबल, धीरज, साहस का संचार।
आँसू तुम्हें नमन शतबार।

तुम्हें नमन शतबार, निंदक! तुम्हें नमन शतबार।
तिरछी बाँकी तेरी बोली, अंतर्मन की आँखे खोली।
अनदेखे दुर्गुण थे जितने, तत्क्षण लिया सुधार।
निंदक! तुम्हे नमन शतबार।

तुम्हें नमन शतबार, दुर्दिन तुम्हें नमन शतबार।
दुःख से समझौता करवाया, थोड़े में जीना सिखलाया।
हुए लचीले, सुर में बजते,मन वीणा के तार।
दुर्दिन! तुम्हें नमन शतबार।

तुम्हें नमन शतबार, विपदा! तुम्हें नमन शतबार।
तुमने जितनी बार जलाया, तप तप नया कलेवर पाया।
मैल जलगए मन कंचन के, आया नया निखार।
विपदा! तुम्हें नमन शतबार।
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रघुनाथ प्रसाद

Wednesday, January 13, 2010

आजादी और सपने

गुलामी गई छोड़ अपना कफ़न,
खुशामद किये जा रहे आदतन।

वही शामे मुजरा, वही मयकशी,
नए सिर्फ चहरे, पुराना चलन।

मिट्टी तो बदली, न बदला वो साँचा,
खुले पाँव में बेड़ियों की चुभन।

वही ढोल डमरू, नया बस मदारी,
सदी से जमूरे का नंगा बदन।

बाँटे वो कल, आज हम बाँटते,
सियासत निभाए, पुराना चलन।

वही रस्मे डाली, सलामी व तोहफ़ा,
सजाने को मंडप, उजाड़े चमन।

कब्ले आजादी, बुने ख्वाब जितने,
गुमनाम की डायरी में दफन।
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रघुनाथ प्रसाद

Tuesday, January 12, 2010

गीत

जल रहा गाँव जल रहा शहर,
सहमा सहमा सा जन जीवन।
अब युद्ध भूमि सड़कें गलियां,
बंदी गृह लगता घर आँगन।

स्वासों में भर बारूद अनल,
पथ भ्रमित हुआ है बागी मन।

खो चुके अर्थ अपने अपने,
सिजदा ,अरदास ,भजन पूजन।
बो रही ज़हर, अमृत वाणी,
रणनीति बना दर्शन चिंतन।

रोटी की महिमा के आगे,
नतमस्तक है, वैरागी मन।

सब कुछ खो कर कुछ पाने को,
आतुर कैसा यह पागलपन।
अपनी पहचान मिटा कर भी,
उद्धत लेने को वैभव धन।

प्रभुता लिप्सा जंजीर सबल,
बांधता ही जाता त्यागी मन।

कैसी विघटन की चली हवा,
बंट रही धरा, बंट रहा गगन।
रिश्ते नाते व्यवहार बटे,
चटका शीशे सा अपनापन।

ढूंढे टूटे परिवेशों में,
रस प्रेमसुधा अनुरागी मन।

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रघुनाथ प्रसाद

Friday, January 8, 2010

विकल्प

पर्दे की अब कहाँ जरूरत
खुले मंच पर खेल।
बिन पटरी की दौड़ रही है,
नई सदी की रेल ।
सरे आम हो रही लूट,
चोरी कैसे कहलाये?
सब की दाढ़ी में तिनका,
अब चोर किसे ठहराए।
क्या अंतर दीवारों को यदि,
आँखे भी मिल जाए।
बस्ती सारी खड़ी दिगंबर,
किस से कौन लजाये।
कदाचार ,काली करतूतें,
सदाचार कहलाये।
भ्रष्ट आचरण,
कालाधन,
सम्मान प्रतिष्ठा पाए।
शीर्षासन में खड़ी हो गई,
शब्द कोष की भाषा।
बेहतर होगा बदल डालना,
शब्दों की परिभाषा।
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रघुनाथ प्रसाद

Thursday, January 7, 2010

जीना सिखा दिया

कैसे करूँ अदा मैं, ऐ दोस्त शुक्रिया ।
अंदाजे सफ़र तू ने ,जीना सिखा दिया।

तनहाई काटती न ,करे शोर -गुल तबाह ,
ऐसी लगन लगी ,दीवाना बना दिया ।

गुड़ की मिठास क्या है ,उस दिन पता चला ,
जिस रोज़ यार तू ने ,मिर्च खिला दिया

आता है तरस उन पे ,उनके मिजाज पे ,
जिनकी वफा ने मुझको ,मुफलिस बना दिया

आवाज नहीं आती ,अब उस मचान से ,
इस सिरफिरे ने सहसा ,सीढी हटा लिया ।

वो रास्ता नहीं थी जिस राह चल पड़े ,
बढ़ने लगे कदम तो ,रास्ता बना लिया ।

'गुमनाम' बहे आंसू ,लगते रहे ख़ुशी के
जज्बा -ऐ -सफ़र तू ने ,इतना हंसा दिया ।

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रघुनाथ प्रसाद

Sunday, January 3, 2010

शहर नाबिनों का

नाबिनों का शहर सुना वह ,दर्पण जिन्हें थमा आया ।
सूरज कैद हुआ जिस घर में ,दीपक वहीँ जला आया ।

महफ़िल या रंगीन तबेला ,जाने ये ऊपर वाला ,
गीत रसीले मधुर कंठ से ,गाकर जहां सुना आया ।

पीर पराई ढ़ोते-ढ़ोते ,थका बावरा दीवाना ,
गूंगे बहरों की बस्ती में, गला फाड़ चिल्ला आया।

मन में टीस तड़प बेचैनी ,साट चेहरे पर मुस्कान ,
नुक्कड़ पर बेबाक मसखरा ,लोगों को बहला आया ।

बुड्ढा एक निर्बसन बैठा ,काँप रहा थर -थर देखा ,
अपनी शाल उतारा तन से ,चुपके उसे ओढा आया ।

जाने कब उर्बरा जमीं हो ,जाने कब बरसे बादल ,
बंजर सूखी धरती में ,बे मौसम बीज लगा आया ।

था ऐसा सिरफिरा जुनूनी ,मिला मुझे जब पहली बार ,
जीना है तो मरना सीखो ,हंसते -हंसते फरमाया ।

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रघुनाथ प्रसाद