Wednesday, June 30, 2010

ग़ज़ल

तेल सारा जल गया, भींगी हुई बाती तो है.
टिमटिमाती लौ सही वह, राह दिखलाती तो है.

एक पत्ता भी दरख्तों का, नहीं गिरता यहाँ,
लोग कहते तेज आंधी, बारहा आती तो है.

आज भी ठंढा है चुल्ल्हा, लौट कर बिल्ली गई,
आ चलो अब सो पड़े, माँ लोरिआं गाती तो है.

वो गए सो फिर न आये, लोग समझाते रहे,
चिट्ठियों के मार्फ़त, उनकी दुआ आती तो है.

फैसला इजलास का, इक उम्र में मुमकिन नहीं,
शुक्र है हर माह इक, तारीख पड़ जाती तो है.

गम नहीं जो हादसे में, शहर के कुछ घर जले,
सेंकने को रोटियां, कुछ आग मिल जाती तो है.

आप मादरजाद नंगा हो गए तो क्या हुआ?
बेहयाई देख कर, खुद शर्म शर्माती तो है.
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-रघुनाथ प्रसाद

Tuesday, June 29, 2010

गीत गाता हूँ चमन के पंछियों से सुर मिला के

पीर रिसती हृदय के हर तंतु से तब तिलमिला के .
गीत गाता हूँ चमन के पंछियों से सुर मिला के .

तार वीणा के खिंचे तब मीड का विस्तार होता ,
तार पर मिजराब के आघात से झंकार होता ,
थाप खा मिरदंग बजता ,ताल में सुर लय मिला के .
गीत गाता हूँ चमन के पंछियों से सुर मिला के

बांसुरी के हृदय में इतने अगर ना छेद होते ,
टेर में संगीत मधुरिम किस तरह वादक पिरोते .
बांस नलिका साज बनती ,तप्त छड से तन जला के .
गीत गाता हूँ चमन के पंछियों से सुर मिला के .

पीर अपनी या पराई ,या विरह की वेदनाएं ,
या विषम परिवेश की ,संचित गहन संवेदनाएं .
युग समय का गीत गढ़ती अश्रु से दीपक जला के .
गीत गाता हूँ चमन के पंछियों से सुर मिला के .

               - रघुनाथ प्रसाद

Friday, June 25, 2010

गीत

इतिहास सवारे दुनियां का, अपना भूगोल गवां बैठे.
सुख दुःख में फर्क नहीं कोई, ऐसे मुकाम पर आ बैठे.

धरती सूरज चंदा चलते तो, मौसम आप बदलता है,
होना बदलाव सुनिश्चित है, मन में विश्वास जमा बैठे.

बस सदा कर्म से नेह रहा, फल की आशा बेमानी था,
तोड़े नाते सब ग्रंथों से, गीता से नेह लगा बैठे.

हम ने केवल चलना सीखा, चलते रहना चलते जाना,
पग ने मापी इतनी दूरी, मंजिल का पता भुला बैठे.

मेवा उसका खुद चखने को, कोई अखरोट लगाता क्या?
थी सुनी कहानी बचपन में, सिद्धांत वही अपना बैठे.

साधें केवल हित अपना ही, फिर अंतर क्या पशु मानव में,
क्या यही प्रगति का मार्ग उचित, जो सहज आज अपना बैठे.

- रघुनाथ प्रसाद

दोहे

लोकतंत्र के हाट में, लोक लाज नीलाम.
जितना खोटा माल है, उतना ऊँचा दाम.

मोल तोल की दौड़ में, बिन पटरी की रेल.
ज्ञानी जन कहते इसे, राजनीति का खेल.

माया की बरसात है, दोनों हाथ बटोर.
हाथी फिरे बाजार में, स्वान मचाएं शोर.

डाल डाल पर शोर है, होगा पुनः चुनाव.
आहत पंछी नीड़ में, सहलाते हैं घाव.

गौरैया किसको चुने, किसके सर हो ताज.
इस डाली घुग्घू डटे, उस डाली पर बाज.
- रघुनाथ प्रसाद

Saturday, June 5, 2010

कहीं बरसात का पानी जरूर ठहरा है

कहीं बरसात का पानी जरूर ठहरा है.
तमाम वादियों में तिशनगी का पहरा है.

हुई है कैद चाँदनी किसी की मुट्ठी में,
चाँद निकला है मगर, स्याह रात कोहरा है .

कहीं उजड़ा है चमन बागवां के हाथों से,
किसी के सर पे सजा शानदार सेहरा है.

थकीं आजान,सबद ,शंख भजन की चीखें,
किसी के बंद दरीचे हैं ,कोई बहरा है.

लगेगा वक्त बहुत यार ,इसके भरने में,
किसी अजीज का तोहफ़ा है, जख्म गहरा है.

अदब से लीजिए प्रसाद उनकी मर्जी का,
जमीं पे खौफ का साया, फलक पे पहरा है.

- रघुनाथ प्रसाद

मुक्तक

मत कुरेदो परत राख की यूँ,
इसके अन्दर भी शोले पड़े हैं.
ये मुनासिब नहीं उनकी खातिर,
जिनके घर कागजों पे खड़े हैं.

यूँ न सहलाओ जख्मों को मेरे,
ये विरासत में हम को मिले हैं.
जी रहे हैं इसी के सहारे,
हम इसी के सहारे बढे हैं.

बड़ी बेढब हमारी ये बस्ती,
यहाँ कातिल बड़े मश्खरे हैं.
भोंक देते हैं सीने में खंजर,
पूछते फिर ये कैसे मरे हैं.

कितनी नज़रों पे डालेंगे परदे,
हर गली हर सड़क अब मुखातिब.
बेवजह आइना पोंछते हैं,
दाग से जिनके चेहरे भरे हैं.

- रघुनाथ प्रसाद