थकने लगे अभी से क्योंकर, चंचल आतुर पाँव ?
अभी तुमे कोसों जाना हैं, अभी दूर है गाँव |
.......... मुसाफिर अभी दूर है गाँव |
कब निकला सूरज का गोला, कब मस्तक पर आया |
चलता रहा पथिक तू धुन में, कहाँ ध्यान दे पाया |
सुरसा सी बढती परछाई, अरु तरुओं की छाँव |
.......... मुसाफिर अभी दूर है गाँव |
दम उखड़ा पग पनही टूटी, दुखती रही बिवाई |
जोड़-जोड़ में दर्द पिरोती, सिहर-सिहर पुरवाई |
रैन बसेरा उन्मुख पंछी, गूंजे कलरव काँव |
.......... मुसाफिर अभी दूर है गाँव |
देख पथिक उस नाविक को, जो नाव लिये मझधार |
धैर्य डोर से पाल संभाले, साहस से पतवार |
गाता गीत सुरीले स्वर में, खेता जाता नाव |
.......... मुसाफिर अभी दूर है गाँव |
दीपक का है मोल तभी तक, जब तक जलती बाती |
ठहर गयी जिस ठौर नदी, वह नदी नहीं रह जाती |
चलना ही जीवन कहलाये, मौत जहाँ ठहराव |
.......... मुसाफिर अभी दूर है गाँव |
-रघुनाथ प्रसाद
Sunday, September 26, 2010
Saturday, September 25, 2010
"कैसा तेरा गाँव ?"
कैसा तेरा गाँव साथिया,कैसा तेरा गाँव?
कहीं फसल सूखे मुर्झाए,कहीं बहाए बाढ़.
कहीं जलातीं लू की लपटें,कहीं ठंढ की मार.
कहीं काँपती थर-थर गुरवत,जलता कहीं अलाव .
साथिया ..........
नदियाँ स्वयं नीर पी जाएँ,तरुवर फल खा जाएँ .
भूखे प्यासे पशु परिंदे,नाहक आस लगाए .
बूढ़ा बरगद ओढ़े बैठा,अपनी शीतल छाँव .
साथिया ..........
यमन,विलावल,अहिर भैरवी,ध्रुपद,राग दरबारी .
कजरी,आल्हा,बिरहा,ठुमरी,तोड़ी,राग पहाड़ी .
होड़ लगी है ताल ठोककर,सरगम में टकराव .
साथिया ..........
देती क्या सन्देश अराजक भेद-भाव की भाषा .
ध्वज,परचम,डंडे पर चढ़कर,बन्दर करें तमाशा.
गली-गली विस्फोट धमाका,चौराहे पथराव .
साथिया ..........
धरती खोदे महल उठाये,ये कैसी चतुराई ?
जितना ऊँचा उठा मुडेरा,उतनी गहरी खाई .
देखो कहीं कहर ना ढाए,मौसम का बदलाव .
साथिया ..........
रघुनाथ प्रसाद
कहीं फसल सूखे मुर्झाए,कहीं बहाए बाढ़.
कहीं जलातीं लू की लपटें,कहीं ठंढ की मार.
कहीं काँपती थर-थर गुरवत,जलता कहीं अलाव .
साथिया ..........
नदियाँ स्वयं नीर पी जाएँ,तरुवर फल खा जाएँ .
भूखे प्यासे पशु परिंदे,नाहक आस लगाए .
बूढ़ा बरगद ओढ़े बैठा,अपनी शीतल छाँव .
साथिया ..........
यमन,विलावल,अहिर भैरवी,ध्रुपद,राग दरबारी .
कजरी,आल्हा,बिरहा,ठुमरी,तोड़ी,राग पहाड़ी .
होड़ लगी है ताल ठोककर,सरगम में टकराव .
साथिया ..........
देती क्या सन्देश अराजक भेद-भाव की भाषा .
ध्वज,परचम,डंडे पर चढ़कर,बन्दर करें तमाशा.
गली-गली विस्फोट धमाका,चौराहे पथराव .
साथिया ..........
धरती खोदे महल उठाये,ये कैसी चतुराई ?
जितना ऊँचा उठा मुडेरा,उतनी गहरी खाई .
देखो कहीं कहर ना ढाए,मौसम का बदलाव .
साथिया ..........
रघुनाथ प्रसाद
Friday, September 24, 2010
सरिता
शैशव सी निर्मल निश्छल ,चंचल कल-कल जल धारा.
किलक-किलक गिरती उठती,मुखरित पर्वत गलियारा .
रवि की प्रथम किरण चुपके,आती छू-छू कर जाती .
सतरंगी परिधान पहन तब,इत-उत दौड़ लगाती .
खेल-खेल में हुई किशोरी,उच्छ्रिन्खल इतराती.
कभी दौड़ टीले पर चढ़ती,कभी कहीं छुप जाती .
पता कहाँ उस पगली को,किस पथ है उसको जाना .
उसे सुहाता उछल-कूद,बस आगे कदम बढ़ाना .
प्रकृति गोद में पली- बढ़ी,यौवन ने रूप निखारा .
निर्झरणी उद्दाम हुई,दुबली-पतली जल धारा .
राह बनी जिस ओर गई वह,लहराती बल खाती .
तोड़-फोड़ जंगल पर्वत,यौवन मद में इठलाती .
पर्वत से उतरी जैसे,समतल धरती पर आई .
लगी नवेली दुलहन हो ज्यों,शर्मीली सकुचाई .
तट की सीमा में सिमटी,घूँघट तरुओं का डाल .
डोली में दुल्हन जाए,जैसे अपने ससुराल .
मंथर गति कल-कल करती वह, आगे बढ़ती जाए.
नई वधु आँगन में रुन-झुन,पायल ज्यों खनकाए .
डगर-डगर अमृत बाँटे,फसलों में प्राण जगाए .
आह्लादित ममता मानो,शिशु को पयपान कराये .
नारी-रूपा,सुधा-तरंगिनी,जन-जीवन आधार .
तटिनी,निर्झरणी शैवालिनी,तुम्हें नमन शत बार .
किलक-किलक गिरती उठती,मुखरित पर्वत गलियारा .
रवि की प्रथम किरण चुपके,आती छू-छू कर जाती .
सतरंगी परिधान पहन तब,इत-उत दौड़ लगाती .
खेल-खेल में हुई किशोरी,उच्छ्रिन्खल इतराती.
कभी दौड़ टीले पर चढ़ती,कभी कहीं छुप जाती .
पता कहाँ उस पगली को,किस पथ है उसको जाना .
उसे सुहाता उछल-कूद,बस आगे कदम बढ़ाना .
प्रकृति गोद में पली- बढ़ी,यौवन ने रूप निखारा .
निर्झरणी उद्दाम हुई,दुबली-पतली जल धारा .
राह बनी जिस ओर गई वह,लहराती बल खाती .
तोड़-फोड़ जंगल पर्वत,यौवन मद में इठलाती .
पर्वत से उतरी जैसे,समतल धरती पर आई .
लगी नवेली दुलहन हो ज्यों,शर्मीली सकुचाई .
तट की सीमा में सिमटी,घूँघट तरुओं का डाल .
डोली में दुल्हन जाए,जैसे अपने ससुराल .
मंथर गति कल-कल करती वह, आगे बढ़ती जाए.
नई वधु आँगन में रुन-झुन,पायल ज्यों खनकाए .
डगर-डगर अमृत बाँटे,फसलों में प्राण जगाए .
आह्लादित ममता मानो,शिशु को पयपान कराये .
नारी-रूपा,सुधा-तरंगिनी,जन-जीवन आधार .
तटिनी,निर्झरणी शैवालिनी,तुम्हें नमन शत बार .
वसंत
प्रातः की गुन-गुनी धूप में सिहरन का एहसास .
ले संदेसा पछेया आई ,आ पहुंचा मधुमास
पादप के पीले पत्ते अब ,गीत फागुनी गाते.
डाल छोड़ कर नाच हवा में ,धरती पर सो जाते .
टेंसू का गदराया यौवन ,गाल हो गए लाल ,
अमराई में बौर लदगए ,झुकी आम की डाल .
सरसों में दाने भर आये ,फुनगी पर कुछ फूल .
अलसी सर पर कलसी थामे ,राह गई ज्यों भूल .
खड़ा मेंड़ पर लिये लकुटिया ,कृषक हाथ कटी थाम .
झूम-झूम गेहूं की बाली ,झुक-झुक करे सलाम .
पछेया तो हो गई बावरी ,करने लगी ठिठोली .
धरती पर से धूल उठाकर ,लगी खेलने होली .
दंभ ,द्वेष ,मनमैल,भेद ,जलगए होलिका संग ,
गले मिले पुलकित आह्लादित ,भाँति-भाँति के रंग
मिटा गया आयु की सीमा ,कैसा यह ऋतुराज .
होली के मदमस्त ताल पर ,झूम रहे सब आज .
दंतहीन पिचके गालों पर पसरा रंग गुलाबी ,
जाने क्या सन्देश दे गया ,यह मधुमास शराबी .
रघुनाथ प्रसाद
ले संदेसा पछेया आई ,आ पहुंचा मधुमास
पादप के पीले पत्ते अब ,गीत फागुनी गाते.
डाल छोड़ कर नाच हवा में ,धरती पर सो जाते .
टेंसू का गदराया यौवन ,गाल हो गए लाल ,
अमराई में बौर लदगए ,झुकी आम की डाल .
सरसों में दाने भर आये ,फुनगी पर कुछ फूल .
अलसी सर पर कलसी थामे ,राह गई ज्यों भूल .
खड़ा मेंड़ पर लिये लकुटिया ,कृषक हाथ कटी थाम .
झूम-झूम गेहूं की बाली ,झुक-झुक करे सलाम .
पछेया तो हो गई बावरी ,करने लगी ठिठोली .
धरती पर से धूल उठाकर ,लगी खेलने होली .
दंभ ,द्वेष ,मनमैल,भेद ,जलगए होलिका संग ,
गले मिले पुलकित आह्लादित ,भाँति-भाँति के रंग
मिटा गया आयु की सीमा ,कैसा यह ऋतुराज .
होली के मदमस्त ताल पर ,झूम रहे सब आज .
दंतहीन पिचके गालों पर पसरा रंग गुलाबी ,
जाने क्या सन्देश दे गया ,यह मधुमास शराबी .
रघुनाथ प्रसाद
Thursday, September 23, 2010
आखिरी पडाव का सफ़र
आखिरी पडाव का सफ़र, माथे पर झुरमुठ की छावं |
सहलाते बैठकर यहाँ, थके हुए पीठ और पाँव |
मिलते ही मीत हो गए, अनजाने हमउम्र लोग,
अद्भुत अपनापन का भाव, साले मन किंचित वियोग |
अपने मेहमान बन गए, औपचारिक सेवा सद्भाव |
विरल श्वेत बादलो के बीच, झाँक रहा धूसर मयंक |
पंछी सब एक डाल के, ना कोई राजा ना रंक |
कलरव में निर्गुण की धुन, सरगम में कम्पन ठहराव |
चिबुक संग नासिका मिली, दसन गए खुला छोड़ द्वार |
जिह्वा निर्बाध दौड़ती, चौकठ ना कोई दीवार |
शब्द उलझ कंठ में फंसे, मन में कुछ कहने की चाव |
बचपन की यादों के पल, जोड़ते हैं बात की कड़ी |
हंस लेते बैठ कर यहाँ, हृदय खोल रोज दो घडी |
बतरस के भिन्न भिन्न रंग, अनुभव में किंचित टकराव |
जटिल कई प्रशन अनछुए ,सहज लगे बाँट परस्पर |
चेहरे की गहरी शिकन, पल भर को जाती पसर |
चलते ही साथ हो लिए, चिंता तनहाई तनाव |
यन्त्रवत प्रचंड वेग से सडकों पर भागती सी भीड़ |
दाने तलाशने उड़े विहग बृंद छोड़-छोड़ नीड़ |
अपने दिन याद आ रहे, आया अब कितना बदलाव |
-----------------------------------
-रघुनाथ प्रसाद
सहलाते बैठकर यहाँ, थके हुए पीठ और पाँव |
मिलते ही मीत हो गए, अनजाने हमउम्र लोग,
अद्भुत अपनापन का भाव, साले मन किंचित वियोग |
अपने मेहमान बन गए, औपचारिक सेवा सद्भाव |
विरल श्वेत बादलो के बीच, झाँक रहा धूसर मयंक |
पंछी सब एक डाल के, ना कोई राजा ना रंक |
कलरव में निर्गुण की धुन, सरगम में कम्पन ठहराव |
चिबुक संग नासिका मिली, दसन गए खुला छोड़ द्वार |
जिह्वा निर्बाध दौड़ती, चौकठ ना कोई दीवार |
शब्द उलझ कंठ में फंसे, मन में कुछ कहने की चाव |
बचपन की यादों के पल, जोड़ते हैं बात की कड़ी |
हंस लेते बैठ कर यहाँ, हृदय खोल रोज दो घडी |
बतरस के भिन्न भिन्न रंग, अनुभव में किंचित टकराव |
जटिल कई प्रशन अनछुए ,सहज लगे बाँट परस्पर |
चेहरे की गहरी शिकन, पल भर को जाती पसर |
चलते ही साथ हो लिए, चिंता तनहाई तनाव |
यन्त्रवत प्रचंड वेग से सडकों पर भागती सी भीड़ |
दाने तलाशने उड़े विहग बृंद छोड़-छोड़ नीड़ |
अपने दिन याद आ रहे, आया अब कितना बदलाव |
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-रघुनाथ प्रसाद
Wednesday, August 25, 2010
ग़ज़ल "ये ज़रूरी नहीं जो भी कहे जुबान कहे"
ये जरुरी नहीं जो भी कहे जुबान कहे .
सिलें जो होठ ,ये जमीं वो आसमान कहे .
किसी अदब किसी जुबान से नहीं मुम्किन .
जो बात नजर कहे ,पलक बेजुबान कहे .
जरूर इर्द गिर्द मुफलिसी पली होगी ,
आसमां चूमता ये महल आलिशान कहे
कोई सदमा जरुर दिल में दबा रक्खा है .
तिरी लबों की हंसी ,यार बाईमान कहे.
हवा का रुख बता रहा बहार आएगी ,
झडे हैं शाख के पत्ते ,शजर वीरान कहे .
बड़े सिद्दत से बागवां इन्हें पाला होगा ,
महकते फूल ,दिलफरेब गुलिस्तान कहे .
रघुनाथ प्रसाद
सिलें जो होठ ,ये जमीं वो आसमान कहे .
किसी अदब किसी जुबान से नहीं मुम्किन .
जो बात नजर कहे ,पलक बेजुबान कहे .
जरूर इर्द गिर्द मुफलिसी पली होगी ,
आसमां चूमता ये महल आलिशान कहे
कोई सदमा जरुर दिल में दबा रक्खा है .
तिरी लबों की हंसी ,यार बाईमान कहे.
हवा का रुख बता रहा बहार आएगी ,
झडे हैं शाख के पत्ते ,शजर वीरान कहे .
बड़े सिद्दत से बागवां इन्हें पाला होगा ,
महकते फूल ,दिलफरेब गुलिस्तान कहे .
रघुनाथ प्रसाद
Saturday, July 24, 2010
मुखौटा
दिखने में होने में अंतर ,कितना होता यह जग जाहिर .
भ्रम तो दुनियां को छलने का ,हम स्वयं आप को छलते हैं .
किस मोह पाश का बंधन यह ,आखिर कैसी यह मज़बूरी ,
चेहरे पर कृत्रिम शान ओढ़ ,अपनो के बीच निकलते हैं .
सारे खिड़की दरवाजों पर ,पहरे का बोझ उठाते फिर ,
हर नजर झांकती सी लगती इतना लोगों से डरते हैं .
जाने क्या सुख सहमी सकुची ,संदिग्ध हवा में जीने का ,
इस घुटन भरी गलियारे में,जीने पर गौरव करते हैं .
साहस का शाल ओढ़ कर भी ,कायरता कहाँ छुपा पाते ,
है यही वजह कि दर्पण के ,सन्मुख जाने से डरते हैं .
उन्मुक्त हवा में जीने का ,अद्भुत आनंद कहाँ पाते ,
मानस में पनपे हीन भाव ,अनुकूल हवा में फलते हैं.
रघुनाथ प्रसाद
भ्रम तो दुनियां को छलने का ,हम स्वयं आप को छलते हैं .
किस मोह पाश का बंधन यह ,आखिर कैसी यह मज़बूरी ,
चेहरे पर कृत्रिम शान ओढ़ ,अपनो के बीच निकलते हैं .
सारे खिड़की दरवाजों पर ,पहरे का बोझ उठाते फिर ,
हर नजर झांकती सी लगती इतना लोगों से डरते हैं .
जाने क्या सुख सहमी सकुची ,संदिग्ध हवा में जीने का ,
इस घुटन भरी गलियारे में,जीने पर गौरव करते हैं .
साहस का शाल ओढ़ कर भी ,कायरता कहाँ छुपा पाते ,
है यही वजह कि दर्पण के ,सन्मुख जाने से डरते हैं .
उन्मुक्त हवा में जीने का ,अद्भुत आनंद कहाँ पाते ,
मानस में पनपे हीन भाव ,अनुकूल हवा में फलते हैं.
रघुनाथ प्रसाद
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