उठे हाथ कुछ लिखने को क्यों बार -बार थम जाते ?
.धमनी के संचार तंत्र,हर बार सहम क्यों जाते ?
कलम कांपती हत्यारन सी ,कुछ का कुछ लिख जाती ,
उलझे -उलझे शब्द जाल में ,भाव कही खो जाते ।
क्यों मस्तिष्क समझ ना पाए ,अंतर्मन की भाषा ?
आते -आते शब्द कंठ तक ,वहीँ ठहर क्यों जाते ?
कुंठित क्यों विश्वास ,हृदय क्यों हीन भाव से बोझिल ?
सच को सच -सच कह देने से ,इतना क्यों कतराते ?
राह रोकता विचलित करता वाद तंत्र का घेरा ?
या भरमाते दृश्य संस्करण ,पग -पग इन्हें लुभाते ?
या फिर दिशा हीन कर जाते ,दर्प ,ख्याति का लोभ ,
लक्ष्य हीन शर, ब्यर्थ हवा में ,इधर उधर खो जाते ।
या दुर्बल कर देती इनको ,प्रबल पेट की आग ?
गम खाते आंसू पी लेते ,कफ़न ओढ़ सो जाते
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रघुनाथ प्रसाद
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Saturday, December 26, 2009
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"या फिर दिशा हीन कर जाते ,दर्प ,ख्याति का लोभ ,
ReplyDeleteलक्ष्य हीन शर, ब्यर्थ हवा में ,इधर उधर खो जाते ।"
यों तो आपकी हर एक पंक्ति तारीफ के लायक है पर उपरोक्त पंक्ति तो लाजवाब है !
बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत -२ धन्यवाद