Wednesday, December 2, 2009

दोहे

बड़ी मछलियाँ लिख रहीं ,छोटी की तकदीर ।
ध्यान लगा तट पर खड़ा ,बगुला आलमगीर ।

अंकुर को सहला रहा ,जड़ बारूदी गंध ।
खिलने से पहले लुटा ,कलिओं का मकरंद ।

लोकलाज शालीनता ,गयीं दूकान समेट।
जितना ऊँचा ओहदा ,उतना लंबा पेट ।

संसद में लगने लगा ,मछली का बाजार ।
हो हल्ला हुडदंग में ,लोकतंत्र लाचार ।

नई सदी ले आ गई ,पश्चिम से पैगाम ।
जितना छोटा आवरण ,उतना ऊँचा दाम ।

कहना था सो कह दिया ,करिए आप विचार ।
पोता कर्ज चुका रहा ,दादा लिए उधार ।

...........................
रघुनाथ प्रसाद

3 comments:

  1. shukria,
    dohe bahut pasand aaye aur log uktane lage..bhi

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  2. दोहे भी खूबसूरत हैं
    मैं आपके ब्लाग में फिर आउंगा

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