दीन हीन असहाय को, ब्यर्थ न्याय की आस ।
जो समर्थ दोषी नही, कह गए तुलसी दास ।
अंधों की इस दौड़ में, औरों की मत सोच ।
जो भी आए सामने, लंगी मार दबोच ।
सीमा अब धरती नही, लक्ष गगन के पार ।
पंख खुले तो उड़ चलो, तजि कुल घर परिवार ।
जो समर्थ दोषी नही, कह गए तुलसी दास ।
अंधों की इस दौड़ में, औरों की मत सोच ।
जो भी आए सामने, लंगी मार दबोच ।
सीमा अब धरती नही, लक्ष गगन के पार ।
पंख खुले तो उड़ चलो, तजि कुल घर परिवार ।
कुंद हुई संवेदना, कुंठित रूग्ण विचार ।
निकट पड़ोसी कब मरा, ख़बर दिया अखबार ।
दे केवल उपदेश जो, ऐसे गुरु अनेक ।
कथनी करनी एक हो, ऐसा मिले न एक ।
रंगदारी, अपहरण ही, अब उत्तम व्यवसाय ।
हींग लगे ना फिटकरी, माया दौड़ी आय ।
शिथिल संकुचित पेशियाँ, लम्बी बड़ी जुबान ।
क्रिया हीनता ही सही, कर्मठ की पहचान ।
पढ़े लिखे अफसर बने, बुधुआ धरे नकेल ।
सनद प्रतिष्ठा बांटता, जो अनपढ़ बकलेल ।
निकट पड़ोसी कब मरा, ख़बर दिया अखबार ।
दे केवल उपदेश जो, ऐसे गुरु अनेक ।
कथनी करनी एक हो, ऐसा मिले न एक ।
रंगदारी, अपहरण ही, अब उत्तम व्यवसाय ।
हींग लगे ना फिटकरी, माया दौड़ी आय ।
शिथिल संकुचित पेशियाँ, लम्बी बड़ी जुबान ।
क्रिया हीनता ही सही, कर्मठ की पहचान ।
पढ़े लिखे अफसर बने, बुधुआ धरे नकेल ।
सनद प्रतिष्ठा बांटता, जो अनपढ़ बकलेल ।
-रघुनाथ प्रसाद
behatareen sbhi ek se badh kar ek samyik vyangta.
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