Friday, November 13, 2009

ब्यंग्य दोहे

दीन हीन असहाय को, ब्यर्थ न्याय की आस ।
जो समर्थ दोषी नही, कह गए तुलसी दास ।

अंधों की इस दौड़ में, औरों की मत सोच ।
जो भी आए सामने, लंगी मार दबोच ।

सीमा अब धरती नही, लक्ष गगन के पार ।
पंख खुले तो उड़ चलो, तजि कुल घर परिवार ।
कुंद हुई संवेदना, कुंठित रूग्ण विचार ।
निकट पड़ोसी कब मरा, ख़बर दिया अखबार ।

दे केवल उपदेश जो, ऐसे गुरु अनेक ।
कथनी करनी एक हो, ऐसा मिले न एक ।

रंगदारी, अपहरण ही, अब उत्तम व्यवसाय ।
हींग लगे ना फिटकरी, माया दौड़ी आय ।

शिथिल संकुचित पेशियाँ, लम्बी बड़ी जुबान ।
क्रिया हीनता ही सही, कर्मठ की पहचान ।

पढ़े लिखे अफसर बने, बुधुआ धरे नकेल ।
सनद प्रतिष्ठा बांटता, जो अनपढ़ बकलेल ।
-रघुनाथ प्रसाद

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