नील गगन में पंख पसारे, उड़ता हुआ पखेरू मन था ।
खुली हवा सांसो में खुशबु, अथक पंख स्वर में गुंजन था ।
कानों में सरिता का कल-कल, आँखों में गुलजार चमन था ।
रोम -रोम पुलकित आह्लादित, बालसुलभ निर्मल चिंतन था ।
सब अपने थे, नहीं पराये घर अपना, अपना आँगन था ।
सारा विश्व समाहित जिसमें, केवल हम थे नहीं अहम् था ।
लगता जैसे सपना था वह, आँख खुली तो टूट गया ।
सहसा कोई क्रूर लुटेरा, हम से हम को लूट गया ।
'हम' खो गया हमारा क्या फिर, जो है मैं हूँ मेरा है ।
अपने हाथ पराये लगते, इतना घोर अँधेरा है ।
सरिता में बहता है शोणित, कल-कल में क्रंदन चीत्कार ।
रोम-रोम संत्रास समाया, आँखों में लिप्सा व्यापार ।
-रघुनाथ प्रसाद
Sunday, November 22, 2009
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'हम 'खो गया हमारा क्या फिर ,जो है मैं हूँ मेरा है ।
ReplyDeleteअपने हाथ पराये लगते ,इतना घोर अँधेरा है ।
behatareen , hum kho gaya kahin. wah. badhaai sweekaren.