Monday, November 16, 2009

दहकता चमन

हरी भरी वादी फूलों की, जन्नत जिस फुलवारी में ।
बारूदों के टोंटे उगते, उसकी केसर क्यारी में ।

चुभते हैं अब शेर ग़ज़ल के, गजरा से आए बदबू,
लगता ताज़ा लहू भरा हो चांदी की पिचकारी में ।

ख़ुद ही घर में डाका डाले, और बने ख़ुद फरियादी,
जिस में छककर खाना खाते, छेद करे उस थारी में ।

प्यार वफ़ा का नाज़ुक रिश्ता तोल रहे हो सिक्कों से,
फर्क कहाँ बोलो जानेमन, आशिक औ व्यापारी में ।

दुश्मन भी इतना कर पते, शायद यह नामुम्किन था ।
जितना गहरा घाव दे गए, यार हमारे यारी में ।

दरक गया शीशे सा सीना घर आँगन है लहू लुहान,
कोने कोने आग सुलगती, घर के मारामारी में ।

-रघुनाथ प्रसाद

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