पूछो न इस शहर में हमने क्या देखा ।
कभी भुला न सकूँगा जो माजरा देखा ।
जुबान बंद बुलबुलों की शोर कौओं का,
शाख-शाख लगा बाज का पहरा देखा ।
वीरान क्यारियां थीं गुलमुहर थे अफसुर्दा,
करील नागफनी को हरा भरा देखा ।
अश्क लबरेज चश्म होठ पे हँसी लेकिन,
हाय मासूमियत को इस कदर डरा देखा ।
रोशनी बांटता जो राह दिखाने के लिए,
उसी चिराग तले स्याह अँधेरा देखा ।
नायाब खेल दिखा चोर सिपाही वाला,
सिपाही भाग रहे चोर को खड़ा देखा ।
कभी भुला न सकूँगा जो माजरा देखा ।
जुबान बंद बुलबुलों की शोर कौओं का,
शाख-शाख लगा बाज का पहरा देखा ।
वीरान क्यारियां थीं गुलमुहर थे अफसुर्दा,
करील नागफनी को हरा भरा देखा ।
अश्क लबरेज चश्म होठ पे हँसी लेकिन,
हाय मासूमियत को इस कदर डरा देखा ।
रोशनी बांटता जो राह दिखाने के लिए,
उसी चिराग तले स्याह अँधेरा देखा ।
नायाब खेल दिखा चोर सिपाही वाला,
सिपाही भाग रहे चोर को खड़ा देखा ।
-रघुनाथ प्रसाद
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