उद्विग्न हृदय विस्मित आनन् ,कुछ भूल चुका कुछ भूल रहा ।
कितने ज्ञानी ध्यानी देखे ,इठलाते सैलानी देखे ।
कुछ दरश परस मज्जन करते ,कुछ ले जाते पानी देखे ।
जो आए आकर चले गए पदचिन्ह आंकता धुल रहा ।
उद्विग्न हृदय ...........
नावें कितनी कितने नाविक ,स्मरण कहाँ मुझको इतना ।
स्मरण मात्र छिना झपटी ,धक्का -मुक्की लड़ना भिड़ना ।
इतना झकझोर दिया मन को ,अबतक दोलक सा झूल रहा ।
उद्विग्न हृदय ..............
धर्म कहीं ना कर्म सही, सब ओर मचा था लूट -पाट।
घटवारों की दादागिरी जिनके ठीके में रहा घाट ।
मल्लाह खड़ा था बांस लिए ,मेरे हाथों में फूल रहा ।
उद्विग्न हृदय .............
थे बाज दिखाई देते वो ,कहते थे लोग जिन्हें पंडा ।
भय शाम दाम अरु दंड भेद ,अनुरूप भक्त के हथकंडा ।
श्रधा शरमाई सिमट गई , ब्यापारी मोल वसूल रहा ।
उद्विगन हृदय -------
पंडा बोला नीली यमुना ,पीली दिखती गंगा माई ।
माँ सरस्वती अन्तः सलिला , वो पड़ती नहीं है दिखलाई ।
शायद उनका अब मोल नहीं , यह तर्क बड़ा अनुकूल रहा ।
उद्विग्न हृदय ...........
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Monday, November 30, 2009
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bahut badhiarachna.
ReplyDeletePriya yogesh ji,
ReplyDeletepratikriya ke liye bahut bahut dhanyabad.
Raghunath Prasad /e.mail Add.-rnpjsr@gmail.com.