Friday, June 12, 2009

"ज़ख्म-ऐ-जिगर"

यूँ तो खाए हुए हैं चोट जमाने भरके,
जिगर को चीर गए तीर हमारे घर के

ज़ख्म भरता नहीं कि एक और ज़ख्म नया,
खैरियत पूछ रहे पीठ पे हमला कर के

ग़जब है रीत यहाँ पंख कतरने वाले,
हौसला बाँटते हैं आँख में पानी भर के

फ़लक के छोर तलक जाल बिछा है शयद,
लौट आते यहीं परवाज उड़ाने भर के

उम्र गुज़री है यूँ आगे भी गुज़र जाएगी,
कभी देखा ही नहीं खुद पे भरोसा करके

कभी हंसने ना दिया कुलके खैरख्वाहों ने,
कभी रोया भी नहीं आज तलक जी भरके

- रघुनाथ प्रसाद

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