Tuesday, June 23, 2009

"किश्तों में रोज़ मरते हैं"

लोग उम्रे दराज़ की दुआएँ करते हैं
यहाँ ये हाल है, किश्तों में रोज़ मरते हैं

और जीने का कहीं कोई भी मकसद तो हो ?
बेवजह ख्वाब का पैबंद रफू करते हैं

किया गुनाह तो सिला गुनाह का लाजिम
वो होंगे और जो अपनी सजा से डरते हैं

गिला नसीब का करना बुजदिली यारों,
शेर दिल आप ही तकदीर लिखा करते हैं

आरजू आसमां छूने की सबकी होती,
चन्द ही लोग हवाओं का रुख पकड़ते हैं

चलो गुमनाम कहीं दूर जा के सो जाएँ,
यहाँ तो कब्र के मुर्दे भी शोर करते हैं

-रघुनाथ प्रसाद

Saturday, June 20, 2009

"जीने का मज़ा"

ज़िंदगी मक्सद जहाँ गर, फिर मज़ा जीने में है ।
क्यों शिकन चेहरे पे आए दर्द जो सीने में है ।

कत्ल करना काटना ही काम है तलवार का,
वह नुमाया हाथ में कि म्यान पशमीने में है ।

खोज ला ऐसी दवा, जड़ से मिटा दे रोग जो,
गम नहीं कड़वी सही, गर फायदा पीने में है ।

काम कोई भी न मुश्किल, ठान ले दिल में अगर,
देर है तो पहल में, शुरुआत कर देने में है ।

है कोई मसला कि जिसका हल कभी मुम्मकिन नहीं?
हौसला जज़्बा अगर, इन्सान के सीने में है ।

जी लिए अपनी ख़ुशी के वास्ते तो क्या जिए,
लुत्फ तो औरों की खातिर ज़िंदगी जीने में है ।

-रघुनाथ प्रसाद

Tuesday, June 16, 2009

प्यार की तलाश

तन बदन छलनी किया , तपती सलाखें गोध कर ।
गीत गाती बांसुरी , जब थाम ले उसको अधर ।

बदनुमा बेडौल पत्थर भी , नुमाइश में सजे ,
गर तबियत से तराशा जाए उसको ढूंढ़ कर ।

इस चमन में फूल खिलते गीत गातीं बुलबुलें ,
मुस्कुराते हम अगर सुख दुःख निवाला बांटकर ।

मोम पत्थर को करे , तासीर इतना प्यार में ,
आजमा के देख लें ख़ुद , ख़ुदनुमाई छोड़कर ।

हमनिवाला हमसफर हमराज सारे खो गए ,
हम नहीं दिखते कहीं अब , मैं हुआ सारा शहर ।

बेरहम बेदिल जहाँ को छोड़कर जाता चला ,
दिल भले टूटा हो लेकिन मैं न टूटा इस कदर ।

काश ! ये होता पता , रिश्ते महज व्यापार हैं ,
दूर इतना दूर जाता फिर नहीं आता इधर ।

- रघुनाथ प्रसाद

Monday, June 15, 2009

कुछ दर्द बाँट दीजिये

अब आइये जनाब ज़रा पास आइये ,
क्या कहना चाहते हैं , कुछ तो बताइये ।

अरसे से कैद लगते, मन में कई सवाल ,
आखें बता रहीं हैं, जितना छुपाइये ।

ज़ख्मों को छुपाने से नासूर ही बनेगें ,
कुछ दर्द बाँट दीजिए, कुछ खुद उठाइये ।

साहिल पे डूबने से , बेहतर है मेरे यार ,
कुछ हाथ पाँव फेंकिये गोते लगाइए ।

यूँ भागते रहेंगे , कब तक डरे - डरे ,
रुकिए जरा मुड़कर कोई पत्थर उठाइए ।

-रघुनाथ प्रसाद

Sunday, June 14, 2009

तूफान सा क्यों है ?

खामोश निगाहों में तूफान सा क्यों है ?
अपने घरों में आदमी मेहमान सा क्यों है ?

होठों पे थरथरी है फिर भी जुबां बंद ,
इंसानियत का हाल बेजुबान सा क्यों है ?

खुदगर्ज तो नहीं थे ,हम इस कदर कभी ,
आदायगी भी फर्ज का एहसान सा क्यों है ?

बेखौफ दरिन्दे हैं सहमें हुए से लोग ,
इस शहर का माहौल बियावान सा क्यों है ?

हँस हँस के पिए जा रहे जो आदमी का खून ,
उन भेड़ियों का चेहरा इंसान सा क्यों है ?

-रघुनाथ प्रसाद

Friday, June 12, 2009

"ज़ख्म-ऐ-जिगर"

यूँ तो खाए हुए हैं चोट जमाने भरके,
जिगर को चीर गए तीर हमारे घर के

ज़ख्म भरता नहीं कि एक और ज़ख्म नया,
खैरियत पूछ रहे पीठ पे हमला कर के

ग़जब है रीत यहाँ पंख कतरने वाले,
हौसला बाँटते हैं आँख में पानी भर के

फ़लक के छोर तलक जाल बिछा है शयद,
लौट आते यहीं परवाज उड़ाने भर के

उम्र गुज़री है यूँ आगे भी गुज़र जाएगी,
कभी देखा ही नहीं खुद पे भरोसा करके

कभी हंसने ना दिया कुलके खैरख्वाहों ने,
कभी रोया भी नहीं आज तलक जी भरके

- रघुनाथ प्रसाद

"दर्द की दवा"

दर्द का दर्द से आसना हो गया ।
दर्द दिल का मुक्कमल फ़ना हो गया ।

फ़र्क गम और खुशी में न होता जहाँ,
उस शहर में ही अपना मकाँ हो गया ।

तीर उनके निशाने पे बेशक लगे,
जो हुए बे-असर हादसा हो गया,

जो थे कातिल उन्हीं की अदालत लगी,
खुदखुशी हमने की, फैसला हो गया ।

जिसने कश्ती दूबोई थी मझधार में,
अब सुना है, वही रहनुमा हो गया ।

सिरफिरे थे, चिरागाँ जलाते रहे,
जिसने बस्ती जलाई खुदा हो गया ।

-रघुनाथ प्रसाद

"मुस्कुरा कर विदा कीजिए"

ना दवा दीजिए ना दुआ कीजिए ।
हो सके तो मुझे भुला दीजिए ।

कुछ उकेरी थी तस्वीर मैंने कभी,
इन दिवारों पे, उनको मिटा दीजिए

जिस तस्वीर में अक्स मेरा लगे,
अपने कमरे से उसको हटा दीजिए

कोई गुजरा हुआ पल न साले जिगर,
सब खतूतों को मेरे जला दीजिए

गर हवाओं में आए हमारी-सदा,
कह-कहों में उन्हें झट दबा दीजिए

ख्वाब में ना कोई हम भरम पाल लें,
आँख लगने से पहले जगा दीजिए

आँख नम ना करें अलविदा की घड़ी,
मुस्कुरा कर मुझे अब विदा कीजिए

-रघुनाथ प्रसाद

अभिलाषा

चाह नहीं डॉक्टर बनने की,
नहीं चाह अभियन्ता की ।
चाह नहीं मैं बनूं कलेक्टर,
नहीं फ़िल्म अभिनेता की ।

नहीं चाह वैज्ञानिक बनकर,
नई खोज कर नाम कमाऊँ ।
या साहित्य जगत में कोई,
कीर्तिमान पा कर इठलाऊँ ।

चाह नहीं उद्योगपति बन
नये नये उद्योग लगाऊँ ।
या बन कर मैं कला विशारद,
पद्म-विभूषण पदवी पाऊँ ।

भूत भविष्य जानने की भी,
ना कोई जिज्ञासा है ।
हे देवों के देव प्रभु ।
बस मात्र यही अभिलाषा है ।

एक बार बस निर्वाचन में,
मुझको नाथ जिता देना ।
"जनता की सेवा कर पाऊँ"
दिल्ली तक पहुँचा देना ।

-रघुनाथ प्रसाद

Wednesday, June 10, 2009

"ये भी कोई जीना है"

जिधर ले चली हवा चले तुम ,
ये भी कोई चलना है ?
यह तो बस कोरा कायरपन ,
स्वयं आप को छलना है ।

जीवन में संघर्ष नहीं तो ,
जीने का आकर्षण क्या?
अभिलाषा फूलों की हो तो,
काँटों बीच निकलना है ।

मन में दृढ़ संकल्प, लगन,
निश्चय यदि आगे बढ़ने का ।
पर्वत से निर्झर जैसा गिर,
बाधाओं से लड़ना है ।

भेड़ ढोर सा चलते जाना ,
पेट पालना सो जाना ।
नाम इसी का अगर जिंदगी ,
फिर तो बेहतर मरना है ।

-रघुनाथ प्रसाद

Tuesday, June 9, 2009

न बाँधों नीड़ से इनको

न बाँधों नीड़ से इनको,
नवोदित पंख खुलने दो।
खुले आकाश में इनको,
स्वयं निर्बाध उड़ने दो।

बनाले संतुलन अपना ,
परों में शक्ति भर जाए।
हो विकसित आत्मबल ,
इन्हें गिरने संभलने दो।

कभी बदले हवा का रुख,
कभी मौसम बदलता है.
विषम परिवेश से जूझें ,
इन्हे अभ्यास करने दो।

नया विस्तार अम्बर का,
लिए सूरज निकलता है।
चुनौती से भरी राहें ,
त्वरित रफ्तार भरने दो।

अभी जो आ रहा है कल,
वो इनका है, हम न होंगे।
बनें सक्षम ये भविष्य में,
समय के साथ चलने दो।

-रघुनाथ प्रसाद